Saturday, December 26, 2009

बुद्धम् शरणम् गच्छामि

नैसर्गिकता से सराबोर सुरम्य टीले पर स्थित है विश्व धरोहर सांची का बौद्ध स्तूप
कहते हैं जहां समस्त ज्ञान, ध्यान व अध्यात्म की पूर्णता होती है, वहां से बुद्धत्व का प्रारंभ होता है अर्थात जिस आत्मिक सुख व शांति की तलाश में हम जीवनभर भटकते हैं, उसकी अनुभूति बुद्ध के शरणागत होने पर ही संभव है। भौतिकवादी युग के तनावभरे जीवन में आज भी समूचा विश्व भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन को बौद्धिकता, दार्शनिकता व जीवंतता का सर्वोत्तम प्रतीक मानता है, जो उन्होंने हजारों साल पहले मनुष्य को दिया था। बुद्ध ने बौद्धिकता व दर्शन के प्रसार हेतु अपने भ्रमणकाल में जिन स्थलों को अपनाया, वहीं आज बौद्धों के पवित्र तीर्थ और विश्वप्रसिद्ध धरोहर बन गए हैं। इन्हीं में से एक है मध्यप्रदेश में भोपाल से 46 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित सांची का बौद्ध स्तूप। रायसेन जिले में विदिशा से महज 10 किलोमीटर दूर 300 फुट ऊंची पहाड़ी पर बसे बौद्धों के इस प्रमुख पुण्य स्थल पर पहुंचते ही आसपास की दिव्यता का भान हो जाता है। आदिकाल में बेदिसगिरि, चेतियागिरि, काकनाय, नीचगिरि आदि नामों से प्रसिद्ध सांची की नैसर्गिकता सहज ही उस जिज्ञासा को शांत कर देती है कि मानव सभ्यता को शांति का संदेश देने के लिए ईश्वर कैसे इतना शांत और अद्भुत स्थल तलाश लेता है, जहां पहुंचकर छुद्र मन भी बुद्धत्व में लीन हो जाए। जी हां, वह सांची ही है, जहां समस्त ज्ञान व दर्शन बौना नजर आता है और लगता है कि इससे शांत, दिव्य व भव्य स्थल दुनिया में दूसरा नहीं हो सकता।
कहते हैं सम्राट अशोक ने विदिशा के एक श्रेष्ठïी की पुत्री देवी से विवाह किया था। क्रोधी स्वभाव के अशोक का चित्त कलिंग युद्ध के रक्तपात से वितृष्णा से भर गया और वह संसार से विमुख हो गए। फिर, पत्नी के कहने पर अशोक बुद्ध के शरणागत हो गए, तब जाकर कहीं उन्हें शांति मिली। देवी की इच्छा पर ही अशोक ने सांची में सुंदर व विशाल स्तूप बनवाया। अशोक ने शांत, सुंदर सांची को बौद्ध धर्म का प्रसार केंद्र बनाया। उनके पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा यहीं से बोधिवृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका गए थे, वे अपनी मां के साथ सांची में निर्मित विहार में ठहरे भी थे। पौराणिक महत्व वाले और प्रेम, शांति, विश्वास व साहस के प्रतीक सांची का महान व मूल स्तूप सम्राट अशोक ने तीसरी शती, ईसा पूर्व में बनवाया, जिसके केंद्र में अर्धगोलाकार ढांचे में भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे हैं। सबसे बड़े आकार वाले सांची के मूल स्तूप के चारों ओर भूमिस्थ वेदिका, चार तोरण द्वार, मेधि वेदिका तथा वहां तक पहुंचने का सोपान है तथा इसके हार्मिका के मध्य में यष्टिï है, जिस पर तीन छत्र हैं। इसके शिखर पर धर्म का प्रतीक विधि चक्र सजाया गया। स्तूप का व्यास 36.60 मीटर तथा ऊंचाई 16.46 मीटर है, यहां बुद्ध की चार प्रतिमाएं हैं, जो पांचवीं, छठीं शती ईस्वी की मानी गई हैं। पश्चिमी छोर पर 500 मीटर आगे दूसरा स्तूप है, जिसके गर्भगृह में प्रदक्षिणा पथ से 2.13 मीटर ऊंचाई पर बौद्ध प्राचार्यों के धातु अवशेष मिले थे। जबकि, निकट ही 15 मीटर व्यास व 8.23 मीटर ऊंचा तीसरा स्तूप है। दूसरा व तीसरा स्तूप द्वितीय शती ईसा पूर्व का माना गया है। सबसे पुराना हिस्सा बड़े स्तूप का दक्षिणी द्वार माना गया है, जिसमें बुद्ध का जन्म दिखाया गया है। यहीं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सम्राट अशोक का स्तंभ विद्यमान है, कहते हैं यह स्तंभ चुनार से गंगा, यमुना तथा वेत्रवती नदियों को नावों से पार कराकर यहां तक लाया गया था। विविध कालों की शिल्पकलाओं का प्रयोग इसे अलौकिक वैविध्यता प्रदान करता है।
मान्यता है कि प्राचीनकाल में मन्नत पूरी होने पर बौद्ध अनुयायी स्तूप बनवाते थे, सांची व आसपास के क्षेत्रों में ऐसे स्तूपों की संख्या असंख्य है। इनमें बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र, मौटगल्यायन व अन्य बौद्ध भिक्षुओं के धातु रखे होने का प्रमाण मिलता है। श्रीलंकाई बौद्ध संघ ने 1952 में यहां मंदिर बनवाया, जिसमें भगवान बुद्ध की प्रतिमा के अलावा सारिपुत्र व मौटगल्यायन की अस्थियां सहेजी गई हैं। प्रतिवर्ष नवंबर के अंतिम रविवार को इन अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है, साथ ही इन्हें स्तूपों के चारों ओर प्रदक्षिणा करके मंदिर में रख दिया जाता है। इस दौरान विश्व के कोने कोने से बौद्ध धर्मावलंबी यहां आते हैं। स्तूप के शिखर पर सम्मान का प्रतीक छत्र सजा था, पर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान शुंग काल में यहां तोडफ़ोड़ की गई थी। माना जाता है कि शुंग शासक पुष्यमित्र ने स्तूप को नुकसान पहुंचाया, जिसे बाद में उसके पुत्र अग्निमित्र ने दुबारा बनवाया। स्तूप के मूल रूप का विस्तार पाषाण शिलाओं से हुआ। शिलालेखों के अनुसार दूसरे व तीसरे स्तूप का निर्माण शुंगकाल में हुआ, जबकि बेहतरीन तोरण सातवाहन वंश ने बनवाए। तोरण की सर्वोच्च चौखट सातवाहन राजा सतकर्णी की देन है। वर्णात्मक शिल्पों से उन्नत तथा काष्ठï शैली में गढ़े तोरण बुद्ध के जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करते हैं। बुद्ध के लिए मानव शरीर तुच्छ माना गया है, इसीलिए सांची में उन्हें कहीं भी मानव आकृति में नहीं दर्शाया गया है, बल्कि कहीं घोड़ा जिस पर बैठ वे पिता का घर त्यागे, तो कहीं उनके पदचिन्ह और कहीं बोधि वृक्ष का चबूतरा (जहां सिद्धार्थ बुद्धत्व में लीन हो गए) उकेरा हुआ है।
यहां के भित्तिचित्रों में यूनानी पहनावा भी दर्शनीय है, जिनमें वस्त्र, मुद्रा व वाद्ययंत्र स्तूप को अलंकृत करते हैं। बाद में इसे बौद्ध व हिंदू धर्म की शिल्पकलाओं से संवारा गया। गुप्तकाल ने भी सांची को काफी सजाया, यहां स्तूपों से मिली अधिकांश प्रतिमाएं व मंदिर इसी काल में बनाए गए, बाद में भिक्षुओं के निवास के लिए कक्ष बनाए गए, जिनका निर्माण आठवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच माना गया है। वर्तमान ढांचे की चर्चा करें, तो ब्रिटिश जनरल टेलर ने सांची के स्तूप का अस्तित्व दर्ज किया है, पर इसका समुचित जीर्णोद्धार नहीं हो पाया। जॉन मार्शल की देखरेख में 1912 से 1919 के बीच स्तूप को वर्तमान रूप दिया गया तथा 1989 में यह विश्व धरोहर घोषित हुआ। सांची के टीले पर लगभग 50 स्मारक स्थल हैं, जिनमें स्तूप और कई मंदिर शामिल हैं। सांची ही नहीं आसपास का समूचा क्षेत्र बौद्धमय है, यहां से पांच मील दूर सोनारी के पास आठ बौद्ध स्तूप तथा सात मील दूर भोजपुर के समीप 37 बौद्ध स्मारकों का साक्ष्य है। कहते हैं सांची में पहले बौद्ध विहार भी थे तथा समीप स्थित सरोवर की सीढिय़ां भी बुद्ध के समय की मानी जाती हैं।
सर्वेश पाठक

Thursday, October 15, 2009

जय काली कलकत्ते वाली

यूं तो जगतजननी देवी भगवती का प्रत्येक शक्तिपीठ अपनी विलक्षणता के लिए विश्वप्रसिद्ध है, पर कोलकाता के कालीघाट की अलौकिकता का उदाहरण शायद ही हो। धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वैचारिक, साहित्यिक, आदि विविधताओं से सजे इस शहर की उत्पत्ति व नामकरण के वक्त से ही देवी भगवती शक्तिस्वरूपा मां काली का आशीर्वाद प्राप्त है। मां भवानी के उपासकों की आस्था एवं समर्पण से लबरेज यहां के जनजीवन पर सहज ही माता काली की छत्रछाया महसूस की जा सकती है। उत्सवों के लिए प्रख्यात इस शहर में दीपोत्सव में दीपदान के साथ-साथ विश्वप्रसिद्ध काली पूजा की विशेष धूम रहती है। काली पूजा पर जहां समूचा कोलकाता निखर उठता है, वहीं कालीघाट की आभा देखते ही बनती है। यहां पहुंचने के लिए सबसे आसान साधन मेट्रो है, इसके लिए कालीघाट स्टेशन उतरना पड़ता है। मंदिर की ओर बढऩे पर माला फूल प्रसाद आदि की दुकानें प्रवेश पथ को संकरा बना देती हैं।
कालीघाट 51 शक्तिपीठों में से एक है। सती के अंग जिन स्थानों पर गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी सती ने पिता द्वारा पति देवाधिदेव शिव के अपमान के बाद आत्मसम्मान के लिए खुद को स्वाहा कर लिया। भगवान शिव को वहां पहुंचने में विलंब हो गया, तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का जला शरीर उठाकर तांडव शुरू कर दिया। सृष्टिï विनाश के भय से घबराए देवताओं ने श्रीहरि विष्णु से देवाधिदेव को मनाने की विनती की। श्रीहरि ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, इस पर शिव ने नृत्य रोक दिया। कहते हैं, सती के दाहिने पैर की अंगुलियां यहां 'हुगली नाम से प्रसिद्ध पावन 'गंगा नदी के किनारे गिरीं, जो वर्तमान शहर का दक्षिणी भाग है। इस शक्ति 'पीठमाला को कालीघाट के रूप में पहचान मिली। इस पूरे क्षेत्र को कालीकाता नाम मिला, जो आगे चलकर कोलकाता कहलाया।
इस प्रकार काली और कोलकाता का रिश्ता सदियों पुराना है। 15वीं सदी से 18वीं सदी तक की बांग्ला किताबों और सरकारी दस्तावेजों में काली मंदिर का जिक्र है। 1742 में अंग्रेेजों द्वारा बनवाए गए गाइड-मैप में कालीघाट मार्ग दर्शाया गया है। वर्तमान मंदिर करीब 200 वर्ष पुराना है। किंवदंती के मुताबिक 24 परगना जिले के बरीशा गांव के ब्राह्मण जमींदार सवर्ण राय चौधरी के पूर्वज संतोष राय ने इस स्थान की खोज की। उन्हें यहां भागीरथी नदी के किनारे एक तेज प्रकाश-पुंज नजर आया। प्रकाश-पुंज को खोजने पर उन्हें काले पत्थर का टुकड़ा मिला, जिस पर दाहिने पैर की अंगुलियां अंकित थीं। वे उस चमत्कारी शिलाखंड की देवी रूप में उपासना करने लगे। बाद में सवर्ण राय चौधरी ने 1809 में यहां मंदिर निर्माण कराया। मंदिर का वर्तमान प्रवेश द्वार व तोरण का निर्माण बिड़लाजी ने कराया, जिसका नवीनीकरण 1971 में किया गया। काली मंदिर के सामने नकुलेश्वर भैरव मंदिर है, जो 1805 में बना था। यहां स्थापित स्वयंभूलिंगम भी काली की प्रतिमा के पास ही नदी किनारे मिला था।
पुराणों में काली को शक्ति का रौद्रावतार मानते हैं और प्रतिमा या छवि में देवी को विकराल काले रूप में गले में मुंडमाल और कमर में कटे हाथों का घाघरा पहने, एक हाथ में रक्त से सना खड्ग और दूसरे में खप्पर धारण किए, लेटे हुए शंकर पर खड़ी जिह्वा निकाले दर्शाया जाता है। लेकिन, कालीघाट मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं। यह प्रतिमा एक चौकोर काले पत्थर पर उकेरी है। यहां लाल वस्त्र से ढकी मां काली की प्रतिमा के हाथ स्वर्ण आभूषणों और गला लाल पुष्प की माला से सुसज्जित है। मां को प्रसन्न करने के लिए यहां प्रतिदिन बकरे की बलि चढ़ती है। श्रद्धालुओं को प्रसाद के साथ सिंदूर का चोला दिया जाता है।
कोलकाता में ही हुगली नदी के किनारे स्थित है दक्षिणेश्वर काली मंदिर, जहां माता के परमभक्त और साधक स्वामी रामकृष्ण परमहंस पुजारी हुआ करते थे। यह मंदिर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने बनवाया, जिन्हें सपने में मां काली ने मंदिर बनवाने का निर्देश दिया था। 1855 में तैयार हुआ यह मंदिर 25 एकड़ में विस्तारित है, जिसके भीतरी भाग में हजार पंखुडिय़ों वाला चांदी का कमल (फूल) स्थित है। 46 फुट चौड़े तथा 12 गुंबद वाले इस मंदिर की ऊंचाई 100 फुट है, जो अनूठी बांग्ला शैली की वैविध्यता को दर्शाता है। मंदिर के विशाल व हरेभरे परिसर में भगवान शिव के 12 मंदिर स्थापित हैं तथा सामने कल-कल करती हुगली की नैसर्गिक सुषमा भुलाए नहीं भूलती। यहां से बेलूर मठ के लिए नाव से जाना पड़ता है, जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनकी लीलासंगिनी मां शारदा का अद्भुत स्थल है, जो स्वामी विवेकानंद से गहरे से जुड़ा है। रामकृष्ण मिशन इसका संचालन व देखभाल करता है, जिसकी स्थापना स्वामी विवेकानंद ने 1899 में की थी। यहां 1938 में बना मंदिर हिंदू, मुस्लिम व ईसाई शैलियों का मिश्रण है।
मां काली की आस्था से सराबोर कोलकाता अपने अस्तित्व से ही तंत्रमंत्र, ध्यान, ज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, कला, साहित्य व संस्कृति का केंद्र रहा है। साहित्यिक, क्रांतिकारी व कलात्मक धरोहरों से सजे अत्यधिक सृजनात्मक ऊर्जा वाले इस शहर के दर्शनीय स्थलों का कोई सानी नहीं। यहां की इमारतों में गोथिक, बरोक, रोमन व इंडो-इस्लामिक स्थापत्य की शैलियों का भान सहज ही हो जाता है। यहां 1894 में बना एशिया का प्राचीनतम संग्रहालय हो, या 1906 से 1921 के बीच निर्मित विक्टोरिया मेमोरियल, सभी यहां की समृद्धता को दर्शाते हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में महारानी विक्टोरिया के पियानो, स्टडी डेस्क सहित 3000 से ज्यादा वस्तुएं संग्रहित हैं, इसके अलावा इमारत के मुगलिया शैली के गुंबद और उनके शीशों की बेहतरीन स्टोन्ड ग्लास पेंटिंग, भित्तिचित्र, ग्रांड-ऑल्टर आज भी आगंतुकों को लुभाती हैं। इसके अलावा यहां देश के सबसे बड़े पार्कों में शुमार मैदान व फोर्ट विलियम, अनूठी शिल्पकला का द्योतक सेंट पॉल कैथेड्रल, ईडन गार्डन्स के छोटे से तालाब में बना बर्मा का पगोडा, मार्बल पैलेस, पारसनाथ जैन मंदिर, मदर टेरेसा होम्स, बॉटनिकल गार्डन्स, जंतर-मंतर, फाइन आट्र्स अकादमी, टॉलीवुड आदि अनगिनत दर्शनीय स्थल हैं। पर्वों में जगद्धात्री पूजा, पोइला बैसाख, सरस्वती पूजा, रथयात्रा, पौष पार्बो, होली, क्रिसमस, ईद तथा सांस्कृतिक उत्सवों में पुस्तक मेला, फिल्मोत्सव, डोवरलेन संगीत उत्सव, नेशनल थिएटर फेस्टिवल आदि प्रसिद्ध हैं। यहां परिधानों में तांत की साड़ी तथा व्यंजन में बंगाली मिठाइयां, रसगुल्ला व खानपान में मछली के दर्जनों वैराइटी मौजूद हैं। साथ ही, सुभाषचंद्र बोस, जगदीशचंद्र बोस, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, रविंद्रनाथ टैगोर, काजी नजरुल इस्लाम, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, जीबनानंद दास, बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय, आशापूर्णा देवी, महाश्वेतादेवी, अमत्र्य सेन जैसी बेशुमार विश्व विख्यात हस्तियों के नाम व कारनामें कम नहीं होंगे, भले ही उन्हें लिखते-लिखते शब्द कम पड़ जाएं।
सर्वेश पाठक

Monday, October 12, 2009

'काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का

आकाशेतारकंलिङ्गं, पाताले हाटकेश्वरम्।
भूलोकेचमहाकालं, लिंङ्गंत्रयनमोह्यस्तुते॥
अर्थात आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर तथा भूलोक के स्वामी महाकाल हैं। इन तीनों को स्मरण कर नमन किया जाए, तो देवाधिदेव महादेव की पूजा संपन्न मानी जाती है। यूं तो धर्म में आस्था रखने वाले श्रद्धालु महाकालेश्वर की त्रिलोक महिमा से भली भांति परिचित होंगे, किंतु भगवान महाकाल व पुण्यसलिला क्षिप्रा को धारण करने वाली मोक्षदायिनी उज्जयिनी प्रवास का मोह न रखने वाले विरले ही होंगे। भोपाल से सड़क मार्ग से जब हमलोग उज्जैन पहुंचे, तो दिन ढल रहा था, लेकिन इस पुण्य नगरी में प्रवेश करते ही घंटियों-घडिय़ालों की आवाज तथा 'बम बम भोले व 'जय महाकाल की गूंज ने तन मन को ऐसा स्पंदित किया, मानो आस्था व भक्ति का सूरज अभी अभी उदय हुआ हो।
महाकालेश्वर के दर्शन को मन की व्याकुलता दब नहीं रही थी, अतएव हमलोग सीधे जा पहुंचे महाकाल मंदिर। शाम की आरती का वक्त था और काल नियंत्रक महाकाल के भव्य शृंगार की अलौकिक छटा देखते ही बनती थी। देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर संसार का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है, जो स्वयंभू होने के साथ साथ तांत्रिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कहते हैं महाकाल के समक्ष महामृत्युंजय का जप करने से द्वार पर आई मृत्यु उल्टे पांव लौट जाती है, रोगी स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाता है। महाकाल की आराधना से अकाल मृत्यु का योग नष्ट हो जाता है और मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति भी नया जीवन पाता है। मालवा में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'अकाल मृत्यु वो मरे, जो काम करे चण्डाल का। काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का..!
शिव पुराण में बताया गया है कि भूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी वासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए भगवान शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न हो भगवान शिव ज्योति रूप में प्रकट हुए तथा दैत्य का संहार कर लोगों की रक्षा की। इसके बाद भक्तों के आग्रह पर भोलेनाथ लिंग रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए, इसीलिए इन्हें महाकाल कहा जाता है, जो काल से भक्तों की रक्षा करते हैं। यह दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहां भस्म द्वारा महाकाल की अद्भुत आरती की जाती है। इस दौरान वैदिक मंत्रों व स्तोत्र पाठ, वाद्ययंत्रों, शंख डमरू व घंटी घडिय़ालों द्वारा की गई शिव स्तुति अंत:चेतना को जगा देती है। भस्म आरती के समय साधारण वस्त्रों में गर्भगृह प्रवेश वर्जित है, इस दौरान पुरुषों को रेशमी धोती तथा महिलाओं को साड़ी पहनना जरूरी है। अन्य परिधान में भक्त बाहर हाल से महाकाल की भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं। प्रचलित कथा के मुताबिक पहले यहां मुर्दे की चिता भस्म से भोलेनाथ का शृंगार किया जाता था। एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने से महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया और बालक की चिता भस्म से भूतभावन का शृंगार कर दिया, तब से यहां मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर से बने कंडों की भस्म से भगवान शिव का शृंगार किया जाता है। उज्जयिनी में श्रावण मास का खासा महत्व है। सावन के हर सोमवार को महाकाल प्रजा का हाल जानने नगर भ्रमण पर निकलते हैं। इस दौरान भगवान के मुखौटे को पालकी में रख प्रमुख मार्गों पर भ्रमण कराया जाता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु अपने प्रभु के दर्शन करते हैं। सावन के अंतिम सोमवार को महाकाल की शाही सवारी निकलती है और प्रजा पालक महाकाल के जयघोष से पूरा नगर गुंजायमान हो जाता है। युगों-युगों से यहां बसे महाकालेश्वर का उल्लेख पुराणों, महाभारत के अलावा कालीदास तथा तुलसीदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में भी किया गया है। माना जाता है कि मंदिरों की नगरी उज्जैन में करीब चार लाख तीर्थस्थल हैं। प्रामाणिक तौर पर इस पुण्य नगरी का इतिहास 600 साल वर्ष ईसा पूर्व का है, जिसका शासन सम्राट चंद्रप्रद्योत के हाथों में था। प्रद्योत वंश का प्रभुत्व यहां ईसा की तीसरी शताब्दी तक था। इसके बाद यहां मौर्य साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसने अशोक जैसे महान सम्राट दिए, फिर हर्षवद्र्धन और बाद में परमार, चौहान व तोमर शासकों का शासन रहा। वर्ष 1235 में इल्तुत्मिश ने नगर को काफी नुकसान पहुंचाया, जिसका असर महाकाल की प्राचीन मंदिर पर भी पड़ा। यवनों के शासनकाल (1107-1728) में इस धार्मिक नगरी की 4500 वर्षों से ज्यादा पुरानी आध्यात्मिक व पौराणिक परंपराओं की अत्यधिक क्षति हुई। लेकिन, 1728 से यहां मराठों का अधिपत्य हुआ और 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी रही। इसी दौरान महाकालेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण, ज्योतिर्लिंग की पुनप्र्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई। करीब 250 साल पहले सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया। एक परकोटे के भीतर तीन तलों में विस्तारित विश्व प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए सीढ़ीदार रास्ता है, जिसके ठीक ऊपर के कक्ष में ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा स्थापित है, जिनके दर्शन नागपंचमी को ही संभव है।
१०.७७ गुना १०.७७ वर्गमीटर में फैले २८.71 मीटर ऊंचे इस भव्य मंदिर से लगा कोटितीर्थ नामक जलस्रोत है। कहते हैं कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया, तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिंकवा दिया था। बाद में इसकी पुनप्र्रतिष्ठा कराई गई। 1968 के सिंहस्थ महापर्व पर इसके मुख्य द्वार को संवारा गया और निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण हुआ, जबकि 1980 के सिंहस्थ से पूर्व बिड़ला उद्योग समूह ने यहां विशाल मंडप बनवाया, ताकि भीड़ में श्रद्धालुओं को कम परेशानी हो। हाल ही में मंदिर के 118 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई। मंदिर की व्यवस्था के लिए यहां प्रशासनिक कमेटी गठित है, जो यहां की देखभाल सुचारू रूप से करती है।
महाकालेश्वर के अलावा भी उज्जयिनी में कई तीर्थ व पौराणिक महत्व के विश्वप्रसिद्ध स्थल हैं। मालवा की संस्कृति से लबरेज यहां के सहृदय व सरल लोग सहज ही आगंतुकों को अपना बना लेते हैं। सात प्रमुख पौराणिक नगरियों में शुमार उज्जैन के श्री बड़े गणेश मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, हरसिद्धि, गोपाल मंदिर, गढ़कालिका देवी, भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर, दुर्गादास की छत्री, कालभैरव आदि प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। इनमें प्रत्येक के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं, जो आज भी घोर आस्था का प्रतीक है। इसके अलावा अवंतिका, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती, उज्जयिनी आदि विविध नामों से अभिहित उज्जैन के अनेक ऐतिहासिक परिवर्तनों की साक्षी क्षिप्रा नदी का यहां के प्रत्येक तीर्थ से गहना नाता है। कवि, संत, श्रद्धालु, पर्यटक, कलाकार हर किसी को लुभाने वाली क्षिप्रा के मनोरम तट सहज ही आगंतुकों का मन मोह लेते हैं। यहां लगने वाला सिंहस्थ 12 वर्षों के अंतराल पर आता है, जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। इसी दौरान यहां विश्व भर से श्रद्धालु जुटते हैं।
सर्वेश पाठक

Thursday, October 8, 2009

आद्यशक्ति का दिव्य स्थल विंध्याचल

या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:॥
अर्थात, सृष्टि के कण-कण में शक्ति स्वरूप स्थित हे देवी भगवती, आपको शत शत नमन! धर्म में आस्था रखने वालों में विरले ही होगा, जिसे जगतजननी मां विंध्यवासिनी की अलौकिकता का भान न हो। वैसे तो हमलोग कई बार मां के चरणों में शीष नवाने पहुंचे हैं, लेकिन नवरात्रकाल में यहां के दिव्य दर्शन की अनुभूति आज भी तनमन को पुलकित कर देती है। पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर विंध्य की मनोरम पर्वत शृंखलाओं की गोद में आदि अनादि काल से बसी मां विंध्यवासिनी आद्य महाशक्ति हैं। मीरजापुर के विंध्याचल रेलवे स्टेशन के निकट गंगाजी से महज दो फर्लांग दूर बस्ती के बीचोबीच स्थित मां विंध्यवासिनी का दिव्य स्थल युगों युगों से आस्था का केंद्र है।
कहते हैं त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद भी समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि यहां महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती स्वरूपा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी विराजती हैं।भोर के वक्त मां के धाम पहुंचते ही सबसे पहले हमलोगों ने गंगा स्नान किया, फिर 'जय माता दी का उद्घोष करते जा पहुंचे दिव्य धाम! नवरात्र का पर्व, भक्तों की अपार भीड़, जैसे-जैसे गर्भगृह के निकट पहुंचते गए, वैसे-वैसे 'जय माता दी की अंर्तध्वनि तीव्र होती गई। इस पुण्य स्थल का बखान पुराणों में तपोभूमि के रूप में किया गया है। यहां सिंह पर आरूढ़ देवी का विग्रह ढाई हाथ लंबा है। इस संदर्भ में अनेक कथाएं हैं।
श्रीमद्देवीभागवत के दसवें स्कंध में सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सबसे पहले स्वयंभुवमनु तथा शतरूपा को प्रकट किया। स्वयंभुवमनु ने देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया, जिससे प्रसन्न हो भगवती ने उन्हें निष्कंटक राज्य, वंश-वृद्धि, परमपद का आशीर्वाद दिया। वर देकर महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चलीं गईं, जिससे स्पष्ट है कि सृष्टिकाल से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है और सृष्टि विस्तार उन्हीं के शुभाशीष से संभव हुआ। त्रेतायुग में श्रीराम ने यहां देवी पूजा कर रामेश्वर महादेव की स्थापना की, जबकि द्वापर में वसुदेव के कुल पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचंडी का अनुष्ठान किया था।
मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं 'वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में अवतीर्ण हो विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातोंरात यमुना नदी पार कर नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मीं योगमाया को मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही कन्या को पत्थर पर पटककर मारना चाहा। वह उसके हाथों से छूट आकाश में पहुंची और दिव्य स्वरूप दर्शाते हुए कंस वध की भविष्यवाणी कर विंध्याचल लौट गई।
मंत्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी को वनदुर्गा बताया गया है। कहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।माता विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री हैं। यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री भी कहते हैं। यूं तो आदिशक्ति की लीला भूमि विंध्यवासिनी धाम में सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, पर शारदीय व चैत्र नवरात्र में यहां देश के कोने कोने से आए भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है।
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी के पताका में ही होता है।ऋषियों के अनुसार देवी के ध्यान में स्वर्णकमल पर विराजी, त्रिनेत्रा, कांतिमयी, चारों हाथों में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धात्री, पूर्णचंद्र की सोलह कलाओं से परिपूर्ण, गले में वैजयंती माला, बाहों में बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुंडल धात्री, इंद्रादि देवताओं द्वारा पूजित चंद्रमुखी परांबा विंध्यवासिनी का स्मरण होना चाहिए, जिनके सिंहासन के बगल में वाहन स्वरूप महासिंह है। मूर्तिरहस्य में ऋषियों के अनुसार नन्दा नाम की नंद के यहां उत्पन्न होने वाली देवी की भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा किए जाने पर वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं। शक्तिपीठ तंत्रशास्त्रोक्त त्रिकोण रूपा साधकों द्वारा युगों से सेवित है। भगवती महाशक्ति के त्रिगुणात्मक स्वरूप का संपूर्ण दर्शन यहां होता है।
त्रिकोण यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं। धारणा है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह, फिर चौबीस दल हैं, बीच में एक बिंदु है, जिसमें ब्रह्मरूप में महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं। यहां से महज तीन किलोमीटर दूर 'काली खोह नामक स्थान पर महाकाली स्वरूपा चामुंडा देवी का मंदिर है, जहां देवी का विग्रह बहुत छोटा लेकिन मुख विशाल है। इनके पास ही भैरवजी का स्थान है। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि में विंध्यवासिनी के दर्शन और पूजन का अतिशय माहात्म्य माना गया है।
पवित्र गंगा की कलकल करती धाराओं से लगा यह क्षेत्र महज भूखंड नहीं, बल्कि कला एवं संस्कृति का अद्भुत अध्याय है। यहां की माटी में अतीत के विविध तथ्य विश्राम कर रहे हैं। यहां से कुछ ही किलोमीटर दूर चुनारघाट से लगा ऐतिहासिक चुनारगढ़ का किला है, जिससे अनेक फंतासी व किंवदंतियां जुड़ी हैं। चुनार क्षेत्र में बनने वाले चीनी मिट्टी के खिलौने, बर्तन व सजावट के समान अपनी अद्भुत कारीगरी के लिए विश्व विख्यात हैं। विंध्य क्षेत्र में ही देवीधाम के आसपास चालीस किलोमीटर वृत्तक्षेत्र में पुरातात्विक महत्व के नौगढ़ व विजयगढ़ के विश्वप्रसिद्ध किले मौजूद हैं, जबकि विंडमफॉल, राजदरी, देवदरी, लखनिया दरी जैसे झील-झरनों से लबरेज नैसर्गिक क्षेत्र हैं, जहां जाने वाले को वहीं बस जाने का जी करता है। यहां के लोगों का सरल जीवन मां भगवती की भक्ति से ओतप्रोत है तथा इस क्षेत्र की लोक कलाओं का कोई सानी नहीं! कुल मिलाकर जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आस्था, संस्कृति, सभ्यता व पर्यटन की अनूठी मिसाल विंध्याचल सही मायने में हमें जीने की कला सिखाता है।
सर्वेश पाठक

Sunday, October 4, 2009

न्यारी है जगन्नाथधाम की महिमा

विलक्षण ही नहीं, अलौकिक भी है जगत के नाथ श्रीकृष्ण की पुरी
कहते हैं जहां ईश्वर का वास होता है, वहां नैसर्गिकता स्वत: रच बस जाती है और यदि वह जगह चारो धाम में से एक हो, तो क्या कहना... जी हां, हम चर्चा कर रहे हैं, जगत के नाथ भगवान श्रीकृष्ण की पुरी यानी जगन्नाथपुरी की, जहां की अलौकिकता को महसूस तो किया जा सकता है, पर बताना कठिन है। वाराणसी से नीलांचल एक्सप्रेस से हमलोग 20-22 घंटे का सफर तय कर भुवनेश्वर पहुंचे, तो पता चला कि यहां से पुरी के लिए आगे का सफर बस से करना है। वहां से करीब एक घंटे बाद हमलोग पुरी में थे, रात हो चली थी, अत: प्रभु दर्शन के लिए सुबह का इंतजार करना था। यात्रा की थकान और भगवान जगन्नाथ की छवि की कल्पना करते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला। भोर में मंदिर की घंटियों से आंख खुली और हमलोग तरोताजा हो निकल पड़े समुद्र दर्शन, फिर जगन्नाथजी के दर्शन को।
कुछ मिनटों की चहलकदमी, फिर सामने विशाल, स्वच्छ व निर्मल समुंदर, हममें से कइयों ने पहली बार सागर देखा, दूर तक पानी मानों जीवन यहीं ठहर गया और आगे केवल पानी का कोलाहल। जी चाहा कि यहीं ठहर जाएं और घंटों इन उत्साहित लहरों को निहारते रहें। यहां विश्व का सबसे बड़ा समुद्री तट है। कुछ पलों बाद सूर्योदय हुआ, तो लगा जैसे सूर्य देवता भी जगन्नाथजी को प्रणाम करने के लिए ही उदय हुए हैं। इसके बाद हमलोग बढ़ चले जगन्नाथजी के दर्शन को, करीब चार लाख वर्ग फुट में, चहारदीवारी से घिरे इस विशाल मंदिर के द्वार से ही परिसर की भव्यता का भान हो जाता है। उडिय़ा शैली की स्थापत्य एवं शिल्पकला के अनूठे संगम ने समूचे परिसर को अनुपम बना दिया है। वक्राकार मंदिर के शिखर पर श्रीविष्णु का आठ आरों वाला चक्र मंडित है, जिसे नील चक्र भी कहते हैं। अष्टधातु से बने इस चक्र को पवित्रतम माना जाता है। 214 फुट ऊंचे मंदिर का प्रमुख ढांचा एक पाषाण चबूतरे पर स्थापित है, जो बाहर से बीस फुट ऊंची चहारदीवारी से घिरा हुआ है। भीतर गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, बड़े भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा की दिव्य प्रतिमा स्थापित हैं, जिनके दर्शन मात्र से आत्मा तृप्त हो जाती है, ऐसा लगता है मानो जगन्नाथजी भक्तों को मुस्कुराते हुए आत्मसात कर रहे हों। यदि आत्मा-परमात्मा का मिलन मानते हों, तो उसकी अनुभूति यहां सहज ही की जा सकती है। कहते हैं यदि कोई यहां तीन दिन व रात ठहर जाए, तो वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जगन्नाथजी की मूल मूर्ति एक अंजीर वृक्ष के नीचे मिली, जो इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित थी। इसकी चकाचौंध से धर्म ने इसे पृथ्वी में छिपाना चाहा, लेकिन मालवा नरेश इंद्रद्युम्न के स्वप्न में मूर्ति दिखाई दी। फिर राजा ने कठिन तप किया, तो श्रीहरि विष्णु ने बताया कि वह पुरी के तट पर जाएं, जहां एक दारु लकड़ी का लट्ठा मिलेगा और उससे मूर्ति निर्माण कराएं। राजा ने ऐसा ही किया, लट्ठा मिलने पर विष्णुजी और विश्वकर्माजी कारीगर और मूर्तिकार बन राजा के पास पहुंचे और शर्त रखी कि एक माह में मूर्ति तैयार करेंगे, लेकिन इस बीच वे बंद कमरे में रहेंगे और कोई भीतर नहीं आए। समय सीमा समाप्त होने पर कई दिनों तक कोई आवाज नहीं आई, तो राजा ने उत्सुकतावश कमरे में झाका। फिर वृद्ध कारीगर बाहर आया और कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने हैं। राजा के दुखी होने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और मूर्तियों को ऐसे ही स्थापित कर पूजा जाए, तभी से प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि यहां पहले बौद्ध स्तूप था, जिसमें गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे श्रीलंका पहुंचा दिया गया। दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म को वैष्णव संप्रदाय ने आत्मसात कर लिया, तब जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता हासिल की। वहीं, गंग वंश काल के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन चोड गंगदेव ने शुरू कराया था, जिनके शासनकाल (1078-1148) में मंदिर के जगमोहन और विमान भाग बने थे। बाद में उडिय़ा शासक अनंग भीमदेव ने 1174 में मंदिर को वर्तमान रूप दिया। कहते हैं ब्रिटिशकाल में सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर को कई टन स्वर्ण दान किया, साथ ही वसीयत में उन्होंने बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी मंदिर को लिखा। बाद में अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार कर लिया, नहीं तो कोहिनूर भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता। मंदिर परिसर का सबसे बड़ा आकर्षण यहां की विशाल रसोई है, जो भारत की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है, यहां भगवान को चढऩे वाले महाप्रसाद को तैयार करने में पांच सौ रसोइए तथा तीन सौ सहायक सहित करीब एक हजार लोग काम करते हैं।
भगवान जगन्नाथ का यह धाम कई मायनों में अपनी अलग विशेषता रखता है। विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा और नवकाले बाड़ा यहां के प्रमुख पर्व हैं। नवकाले बाड़ा एक धार्मिक अनुष्ठïान है, जिसमें मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाओं का स्वरूप बदला जाता है, जिसके तहत विधिविधान से 'दारु (लकड़ी) को मंदिर में लाते हैं तथा चंदन-नीम की लकड़ी से कड़े धार्मिक कर्मकांड द्वारा मूर्तियों को सुगंधित किया जाता है। कहते हैं इस दौरान 21 दिन व रात के लिए स्वयं विश्वकर्मा मंदिर में प्रवेश कर मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इसके बाद पहले ब्रह्मा को प्रवेश कराकर फिर विधिविधान से मूर्तियों को यहां विराजमान कराते हैं। नवंबर में होने वाले इस पर्व के दौरान उड़ीसा की शिल्पकला, विविध व्यंजन व सांस्कृतिक संध्याएं विशेष आकर्षण होते हैं। ऐसे ही, आषाढ़ शुक्लपक्ष की द्वितीया को आयोजित होने वाली रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है, जिसे देखने संसार के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का जमघट यहां लगता है। नौ दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में जगन्नाथ मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाएं विशाल एवं भव्य रथों पर सुसज्जित हो नगर भ्रमण पर निकलती हैं। इस दौरान 45।6 फुट ऊंचे नंदीघोष नामक रथ पर प्रभु जगन्नाथ, 45 फुट ऊंचे तालध्वज नामक रथ पर भगवान बलभद्र तथा 44।6 फुट ऊंचे दर्पदलन नामक रथ पर देवी सुभद्रा नगर की सैर पर निकलते हैं। देवों को लाने के लिए इन विशाल रथों को मंदिर के बाहर परंपरानुसार खड़ा करते हैं, जिसे पहंडी बीजे कहते हैं। गजपति स्वर्णिम झाड़ू से सफाई करता है।
रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से आरंभ हो दो किमी दूर गुंडिचा मंदिर पहुंचकर समाप्त मानी जाती है। पर्व काल में तीनों प्रतिमाएं गुंडिचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं, फिर वापस उन्हें मुख्य मंदिर में लाया जाता है। रथयात्रा कब से शुरू हुई, इसका कोई मूल साक्ष्य नहीं है, लेकिन मान्यता है कि यह मध्यकाल से ही मनाया जाता है, साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में वैष्णव कृष्ण मंदिरों में भी रथयात्रा मनाते हैं। वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा होने के कारण गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए इसका खासा महत्व है, क्योंकि इस संप्रदाय के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ की ओर आकर्षित हो कई वर्षों तक पुरी में भी रहे थे। रथयात्रा पर्व में श्रद्धालु रथ को हाथों से खींचकर अपने आराध्य को नगर दर्शन कराते हैं। इस दौरान रथों को विविध रंगों से सजाते हैं, जो प्रत्येक मूर्ति के महत्व को दर्शाते हैं।
पुरी में जगन्नाथधाम और रथयात्रा के अलावा भी बहुत कुछ दर्शनीय है, जिसमें यहां का लोकनाथ मंदिर भी शामिल है। लोगों का विश्वास है कि प्रभु श्रीराम ने इस स्थान पर अपने हाथों से शिवलिंग की स्थापना की थी। साथ ही, बालीघाई तथा सत्याबादी भी पुरी के प्रमुख धार्मिक स्थलों में शुमार हैं। इस छोटे किंतु विलक्षण स्थान की सभ्यता एवं संस्कृति का भी कोई सानी नहीं है, कलाकारों के लिए तो मानो यह नगरी स्वर्ग से कम नहीं है। यहां के कलाकार समुद्र की रेत को कोई भी आकृति प्रदान करने के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। यहां का शंकराचार्य महाराज का आश्रम देश के कोने कोने मेें आस्था, विश्वास, धर्म, अध्यात्म व ध्यान की अलख जगाए हुए है।
सर्वेश पाठक

Wednesday, September 30, 2009

वेंकटमना-गोविंदा, गोविंदा-गोविंदा..!

भवसागर पार लगाते बालाजी
तिरुमाला की सुरम्य पर्वत शृंखला पर बसे हैं वेंकटेश्वर
वेंकटमना-गोविंदा, गोविंदा-गोविंदा..! यह पंक्ति उन भक्तों को अवश्य याद होंगी, जिन्होंने तिरुपति बालाजी मंदिर के दर्शन किए होंगे। जी हां, यहीं वह पंक्ति है, जिसका स्मरण कर भक्त अपने भगवान बालाजी के दर्शन करते हैं और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। इस विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर गए सभी भक्त जानते होंगे कि बालाजी दर्शन के लिए विभिन्न जगहों तथा बैंक आदि से एक विशेष पर्ची कटती है, जिसके बाद ही प्रभु वेंकटेश्वर का दर्शन संभव है।
सौभाग्य से जिस दिन हमलोग तिरुपति पहुंचे, उस दिन वहां दर्शन पर्ची समाप्त हो गई थी और रात्रि के ग्यारह बजे तक प्रभु के सीधे दर्शन की अनुमति थी। टोकन सिस्टम से बालाजी दर्शन के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब पर्ची के बिना भक्तों ने प्रभु दर्शन किया और अगले दिन यह स्थानीय मीडिया का प्रमुख समाचार बना। हमलोगों के लिए भी बालाजी के सीधे दर्शन की बात किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। आनन फानन में हमलोग वहां की भव्य धर्मशाला श्रीनिवासम पहुंचे और घंटे भर में तैयार हो एपीएसआरटीसी की बस में निकल पड़े प्रभु वेंकटेश के दर्शन को। धाम पर पहुंचते-पहुंचते रात के दस बज गए थे, मंगलवार मेरे उपवास का दिन था, लेकिन न जाने कौन सी ऊर्जा थी कि वेंकटमना-गोविंदा-गोविंदा करते नंगे पांव मंदिर की ओर दौड़ पड़े। पट बंद होने के पहले हम लोग मंदिर में प्रवेश कर चुके थे और सामने प्रभु वेंकटेश्वर को देख तन-मन पुलकित हो उठा।
आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में समुद्र तल से तीन हजार फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर मौजूद तिरुमाला पर्वत शृंखलाओं की गोद में बसे तिरुपति बालाजी का मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तु एवं शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वामी पुष्करणी तालाब के निकट इस दिव्य स्थल पर भगवान विष्णु ने निवास किया था। इस स्थान के चारों ओर तिरुमाला पहाडिय़ा शेषनाग के सात फनों की भांति प्रतीत होती हैं, जिससे इन्हें सप्तगिरि कहते हैं। वेंकटाद्रि नाम से प्रसिद्ध सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है प्रभु वेंकटेश्वरैया का भव्य मंदिर। मान्यता है कि कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद ही मुक्ति संभव है।
एक अन्य अनुश्रुति में 11वीं शताब्दी में संत रामानुज को तिरुपति की सातवीं पहाड़ी पर प्रभु श्रीनिवास का साक्षात दर्शन हुआ और उनके आशीर्वाद से रामानुज को 120 वर्ष की दीर्घायु मिली, फिर उन्होंने वेंकटेश्वर की ख्याति दूर-दूर तक फैलाई। इस पुरातन धाम की स्थापना को लेकर कई धारणाएं हैं, जिनमें यह भी है कि मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई, जो समानता व प्रेम के सिद्धांत को मानता है। 5वीं शताब्दी तक तिरुपति बालाजी प्रमुख धार्मिक केंद्र बन चुका था। 9वीं शताब्दी में यहां कांचीपुरम के पल्लव शासकों का अधिपत्य था, लेकिन 15वीं शताब्दी के विजय नगर शासनकाल के बाद बालाजी की ख्याति दूर-दूर तक फैली। सन 1843 से 1933 तक अंग्रजी शासन में इस पुण्य स्थल का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला, जिसके बाद मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने स्वतंत्र प्रबंध समिति 'तिरुमाला तिरुपति को सौंप दिया। आंध्र प्रदेश के राज्य बनने पर समिति का पुनर्गठन हुआ और राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर यहां एक प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। यहां मुख्य मंदिर प्रांगण के गर्भगृह में भगवान वेंकटेश्वर की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्हें वेंकटेश्वर बुलाते हैं।
माना जाता है कि प्रभु वेंकटेश का दर्शन करने वाले पर उनकी विशेष कृपा होती है। वैंकुठ एकादशी पर यहां प्रभुदर्शन करने वाले के सभी पाप धुल जाते हैं और मनुष्य जीवन-मृत्यु के भवसागर से पार हो जाता है। मंदिर परिसर की भव्यता देखते ही बनती है और रात्रि के समय यहां से नीचे तिरुपति नगर स्वप्नलोक सा प्रतीत होता है। परिसर में बने अनेक द्वार, मंडपम व छोटे मंदिर अलग ही छटा बिखेरते हैं। पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम, तिरुमाला राय मंडपम, आइना महल, ध्वज स्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कवली, विमान प्रदक्षिणम, श्रीवरदराज स्वामी श्राइन पोटु आदि परिसर के प्रमुख आकर्षण हैं। बालाजी के दर्शन के लिए देश विदेश से आए लोग तीन-तीन दिनों तक लाइन लगाए रहते हैं और पचास हजार से ज्यादा श्रद्धालु प्रतिदिन दर्शन को आते हैं। श्रद्धालु यहां प्रभु को अपने केश चढ़ाते हैं, अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। कल्याण कट्टा नामक स्थल पर भक्त अपने केश दान करने के बाद पुष्करिणी में स्नानकर प्रभु दर्शन को जाते हैं।
तिरुपति प्रांगण में ही श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर है, जो बालाजी के बड़े भाई को समर्पित है। इस मंदिर का गोपुरम दूर से ही दिखाई पड़ता है, जो काफी भव्य है। इस मंदिर को संत रामानुजाचार्य ने 1130 में बनवाया था। यहां ब्रह्मोत्सव बैसाख में मनाया जाता है। तिरुपति से पांच किमी दूर है श्री पद्मावती समोवर मंदिर, जो भगवान वेंकटेश्वर की पत्नी श्री पद्मावती को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमाला की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक इस मंदिर का दर्शन न किया जाए। वेंकटेश्वर जहां विष्णु का अवतार हैं, वहीं पद्मावती को साक्षात लक्ष्मी माना गया है। यहां श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर, श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर, श्री कल्याण वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर, श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर, श्री चेन्नाकेशस्वामी मंदिर, श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर, श्री अन्नपूर्णा काशी विश्वेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वराहस्वामी मंदिर, श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर तथा ध्यान मंदिरम आदि आध्यात्मिकता और धार्मिकता से परिपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं और सभी का अपना अलग इतिहास एवं उनसे संबद्ध पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा यहां आकाशगंगा वाटरफाल तथा टीटीडी गार्डन जैसे आकर्षक स्थल भी मौजूद हैं।
सर्वेश पाठक

Saturday, September 26, 2009

चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है!

मनौती पूरी करतीं मां वैष्णो
जय माता दी! यह पंक्ति मां भगवती के भक्तों को सहज ही वैष्णोधाम की अनुभूति करा देती है। वैष्णोदेवी यात्रा करने वालों में विरले ही कोई होगा, जो इन पंक्तियों को ना पहचाने, जिसकी प्रतिध्वनि भी 'जय माता दी ही है। कहते हैं कि मातारानी का बुलावा आने पर ही उनका दर्शन संभव है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ, जब फोन पर मुझे रेलवे स्टेशन पहुंचने को कहा गया। आपाधापी में आधे घंटे के भीतर मै ट्रेन में पहुंचा और वह चल पड़ी। रास्ते भर माता रानी का ध्यान करते जब हमलोग जम्मू पहुंचे, तो जय माता दी के उद्घोष से समूचा स्टेशन परिसर गूंज उठा। यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर कटरा का सफर बस से तय करना और माता दर्शन को उत्कट मन की अधीरता मानो थम नहीं रही थी। अत: हमलोग तरोताजा हो कटरा जाने वाली बस पर सवार हो गए। घुमावदार पहाड़ी रास्तों व हरीभरी वादियों के नैसर्गिक सौंदर्य ने ऐसा आत्ममुग्ध किया कि कटरा कब आया, पता ही नहीं चला। कटरा पहुंचकर श्राइनबोर्ड से यात्रा पर्ची ली और शुरू हो गई भक्ति में डूबी देवीधाम की अतुलनीय यात्रा।
समुद्रतल से करीब छह हजार फुट ऊपर त्रिकुटा पर्वत शृंखलाओं की गोद में बसी वैष्णोदेवी मां जगदंबा की शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखती हैं। करीब 13 किलोमीटर पैदल यात्रा के बाद ही मातारानी का दर्शन संभव है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वैष्णोदेवी ने दक्षिण भारत में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया व उन्हें त्रिकुटा नाम मिला। बाद में इनका अवतार विष्णु परिवार में हुआ और ये वैष्णवी कहलाईं। भगवान राम अपने वनवास काल में जब माता सीता को ढूंढ रहे थे, तो उन्होंने वैष्णवी को घोर तपस्या में लीन देखा। वैष्णवी ने श्रीराम से कहा कि उन्होंने उन्हें अपना पति मान लिया है, तो श्रीराम बोले कि इस जन्म में उनका अवतार सीता के लिए है, अत: वे कलियुग में उनके पति होंगे। श्रीराम ने उन्हें मानिक पर्वत पर त्रिकुटा शृंखला की गुफा में तप करने को कहा। यही गुफा मां का स्थान है और भूगर्भ शास्त्री भी इसे अरबों साल पुरानी मानते हैं।
कटरा से करीब दो किलोमीटर आगे भुमिका मंदिर है। मान्यता है कि करीब सात सौ वर्ष पूर्व यहीं पर श्रीधर पंडित को कन्या रूप में देवी दर्शन हुए। पंडितजी ने देवी की आज्ञानुसार यहां समष्ट भंडारा दिया, जिसमें गुरू गोरखनाथ व उनके शिष्य भैरवनाथ भी पधारे। भैरव ने दिव्य कन्या की परीक्षा लेनी चाही, तो माता पवन रूप में भुमिका से विलुप्त हो दर्शनी द्वार होते हुए त्रिकुट पर्वत की ओर बढ़ीं। स्मृति स्वरूप यहां दर्शनी दरवाजा बना, जहां से त्रिकुट पर्वत का मनोहारी दर्शन मिलता है। भैरव ने भी योग विद्या से देवी का पीछा किया। महाशक्ति के साथ वीर लंगूर भी थे। रास्ते में वीर लंगूर को प्यास लगी, तो देवी ने पत्थरों पर वाण चलाकर मीठी जलधारा निकाली और वीर लंगूर की प्यास तृप्त हुई। देवी ने भी वहां जल पीया और केश धोए। यहां आज भी वाणगंगा नदी बहती है, जिसके पावन जल में स्नान करने से कई रोग दूर होते हैं। वैष्णोधाम मार्ग में ही चरण पादुका मंदिर है, जहां महाशक्ति ने रुककर पीछे देखा कि भैरव आ रहा है या नहीं। रुकने से यहां माता के चरण चिन्ह बन गए, इसीलिए इसे चरण पादुका पुकारते हैं। इसके आगे अर्धकुमारी मंदिर आता है, जहां भैरव से छिपकर देवी ने नौ महीने तक गुफा में तपस्या की थी। गुफा भीतर से काफी संकरी व टेढ़ी मेढ़ी है, जिसमें जाने पर भक्तों के मुख से 'जय माता दी की ध्वनि स्वत: तीव्र हो जाती है। मान्यता है कि इस गुफा का निकासी द्वारा पाप व पुण्य का पैमाना है, जहां कई बार दुबले लोग भी फंस जाते हैं और मोटा व्यक्ति आसानी से निकल आता है।
अर्ध कुमारी से आगे ढाई किलोमीटर खड़ी चढ़ाई वाली यात्रा है, यहां पहाड़ी की आकृति हाथी के मस्तक जैसी प्रतीत होती है, इसी कारण इसे हाथी मत्था की चढ़ाई कहते हैं। चार किलोमीटर आगे सांझी छत है, जिसे दिल्ली वाली छबील भी कहते हैं। यहां से मां के दरबार का रास्ता समतल व ढालुवां है। वैष्णोधाम पहुंचकर हमलोगों ने कंपकंपा देने वाले शीतल व पावन जल में स्नान किया और यात्रा पर्ची दिखाकर प्रफुल्लित मन से पवित्र गुफा की ओर चले। गुफा के अंत में पिण्डी रूप में महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती का दिव्य दर्शन हुआ, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। गुफा के समीप ही श्रीराम मंदिर और यहीं 125 कदम नीचे शिव गुफा भी है, जिनके दर्शन का अलग ही महत्व है। वैष्णोदेवी यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक भैरवनाथ दर्शन न हो। भैरवनाथ मंदिर देवीधाम से करीब तीन किलोमीटर ऊपर खड़ी व कठिन चढ़ाई के बाद आता है। मान्यता है कि भैरव द्वारा परीक्षा हेतु पीछा किए जाने से देवी क्रुद्ध हो गईं और उन्होंने शस्त्र द्वारा भैरव का सिर धड़ से अलग कर दिया, जो दूर जा गिरा। इसके बाद उसने मां से पापों की क्षमा मांगी, तो उन्होंने वात्सल्य भाव से वर दिया कि वैष्णोदेवी दर्शन कर जो श्रद्धालु भैरव का दर्शन करेगा, उसकी हर मनोकामना पूर्ण होगी।
वैष्णोदेवी यात्रा के अलावा भी जम्मू में काफी कुछ दर्शनीय है, जिनमें प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर, विशाल शिवमंदिर, जामवंत गुफा, कालीमाता मंदिर आदि प्रमुख तीर्थस्थल हैं, जिनमें सभी का पौराणिक महत्व है। जम्मू के रघुनाथ मंदिर परिसर में जहां सभी देवी देवताओं, दसों दिशाओं व समस्त ग्रह नक्षत्रों के अलग अलग व छोटे छोटे मंदिर हैं, वहीं यहां के शिवमंदिर में सहस्त्र लिंग वाला विशाल व पवित्र शिवलिंग है, जो शायद ही आपने कहीं और देखा हो। इसी शहर में प्राचीन जामवंत गुफा है, जहां द्वापर काल में भगवान श्रीकृष्ण व रीछराज जामवंत के मल्लयुद्ध का प्रसंग पौराणिक कथाओं में मिलता है, भगवान व भक्त के बीच मल्लयुद्ध के पीछे त्रेतायुग से द्वापर तक की लंबी कथा है। अगर आप पर्यटन प्रेमी भी हैं, तो यहां कश्मीर भ्रमण भी किया जा सकता है, जो 'धरती का स्वर्ग के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध है। साथ ही, पटनी टॉप जैसे कई हिल स्टेशन भी यहां से काफी करीब हैं, जहां की नैसर्गिकता आपका मन मोह सकती है। खरीददारी के लिए जम्मू में फल व सूखा मेवा, ऊनी वस्त्र, लकड़ी के आकर्षक सामान और पश्मीना की चादर व कंबल आदि ढेरों सामग्री उचित मूल्य पर ली जा सकती हैं। सर्वेश पाठक

Monday, September 14, 2009

जहां बसे हैं साक्षात विश्वनाथ

सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी

देवाधिदेव महादेव भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी, जिसे शब्दों में समाहित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा है। बनारस और वाराणसी के नाम से भी सुविख्यात यह पुण्य नगरी न केवल वेदों, पुराणों में सर्वोपरि है, बल्कि अनेकानेक पुस्तकों ने भी इसके परिसीमन की कोशिश की है। लेकिन, इस पावन, पुरातन, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक नगरी की परिधि का मूल्यांकन संभव नहीं। यहां के पहुंचते ही लगता है, मानो धर्म के साथ स्वयं का साक्षात्कार हो रहा हो। प्रमुख रेलवे स्टेशन वाराणसी कैंट से करीब छह किलोमीटर दूर स्थित है दशाश्वमेघ घाट, जहां रिक्शे द्वारा आसानी से जा सकते हैं। पावन गंगा के निर्मल जल में स्नान व सूर्योपासना के बाद जब विश्वनाथ गली होते हुए विश्वनाथ मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तो हर हर महादेव की गूंज से तन मन पूरी तरह शिवमय हो जाता है।पुराणों में स्पष्ट है कि काशी में पग पग पर तीर्थ हैं। स्कंदपुराण काशी-खण्ड के केवल दसवें अध्याय में 64 शिवलिंगों का उल्लेख है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि उसके समय में यहां करीब 100 मंदिर थे, जिनमें एक भी 100 फुट से कम ऊंचा नहीं था। मत्स्यपुराण के अनुसार यहां पांच प्रमुख तीर्थ दशाश्वमेघ, लोलार्क कुंड, आदि केशव (केशव), बिन्दुमाधव और मणिकर्णिका हैं। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर में विराजे देवाधिदेव की इस पुण्य नगरी के संबंध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता, क्योंकि भगवान इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिïकाल में इसे नीचे उतार देते हैं। आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलाई जाती है, जहां भगवान विष्णु ने सृष्टि रचना के लिए तप कर आशुतोष को प्रसन्न किया, जिसके बाद उनके नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने सर्वस्व रचा। विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। यहां तक कि सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां गंगास्नान कर विश्वनाथ दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है और स्वयं महादेव कानों में तारक-मंत्र का उपदेश देकर प्राणी को संसार के आवागमन से मुक्त करते हैं। ऐसी भी धारणा है कि पृथ्वी का निर्माण हुआ, तो प्रकाश की पहली किरण काशी पर पड़ी। तभी से काशी जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आध्यात्म व संस्कृति का केंद्र है।एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।

यहां गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2।30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11।30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8।30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10।30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है। महाशिवरात्रि पर यहां के वैजनत्था मंदिर पर भव्य मेला भी लगता है।विश्वनाथ मंदिर के सामने ही मां अन्नपूर्णा का पवित्र मंदिर है, जिसे 1725 में मराठा सरदार पेशवा बाजीराव ने बनवाया था। मान्यता है कि यहां का प्रसाद अनाज भंडार में डालने से वह कभी खाली नहीं होता। यहां चांदी के सिंहासन पर विराजमान मां अन्नपूर्णा की कांस्य प्रतिमा का दर्शन रोजाना होता है। लेकिन, धनतेरस से दीपावली के तीन दिनों तक भक्तों को माता की स्वर्ण प्रतिमा का दर्शन मिलता है, जिसमें मां अन्नपूर्णा भगवान शिव को अन्नदान कर रही होती हैं। उन दिनों में भक्तों को प्रसाद में पैसा (सिक्का) व धान (अनाज) दिया जाता है, पैसे को धनकोश और अनाज को अन्नभंडार में रखने से कभी अन्न व धन की कमी नहीं होती। यहां से महज डेढ़ किलोमीटर दूर चौखंभा पर कालभैरव मंदिर है, जिसे सरदार विंचूरकर ने 19वीं सदी के आरंभ में बनवाया था। कालभैरव को काशी का कोतवाल माना जाता है, जो भूतों से नगर की रक्षा करते हैं। इनके हाथ में लाठी व बगल में श्वान (कुत्ता) रहता है। जैसे भगवान शिव का दिन सोमवार माना जाता है, वैसे ही कालभैरव का दिन रविवार है। काशी के मुख्य तीर्थस्थलों में तिलभांडेश्वर, संकठामाता, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, बटुक भैरव, शनिदेव और नौ देवियों के अलग-अलग मंदिर हैं। साथ ही नगर के आसपास के क्षेत्रों में रामेश्वर तीर्थ और त्रिलोचन महादेव भी मौजूद हैं।इसके अलावा यहां देश की पहली व एकमात्र भारतमाता मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित है, जिसे शिवप्रसाद गुप्त ने बनवाया था। यहां वैज्ञानिक रूप से शुद्ध पत्थरों से निर्मित अविभाजित भारत का मानचित्र है। काशी से करीब दस किलोमीटर दूर प्रसिद्ध बौद्ध धर्मस्थल सारनाथ है, जहां करीब ढाई हजार वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पहला उपदेश दिया। यहां पुराकुषाण काल का शिलालेख भी मिला है, जो धर्मोपदेश का अधूरा संग्रह है। भारतीय मुद्रा पर अंकित राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह भी यहीं से लिया गया है। प्राचीन सभ्यता का प्रतीक सारनाथ राष्ट्रीय धरोहर भी है, जहां के संग्रहालय में बौद्ध स्तूप सुरक्षित है। सारनाथ के रास्ते में ही सीता रसोई भी है, जहां कभी माता सीता ने अपने नाथ के लिए भोजन पकाया था।

मंदिरों के अलावा गंगाघाटों व गलियों के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां घाटों की संख्या सौ से अधिक है और प्रत्येक घाट से जुड़ी एक धार्मिक मान्यता व ऐतिहासिक गाथा प्रचलित है। इन घाटों पर जन्म से लेकर मृत्यु तक के धार्मिक संस्कार किए जाते हैं। यहां रोजाना मां गंगा की मनमोहक आरती होती है। गंगा महोत्सव व देव दीवाली पर गंगाघाटों का नजारा किसी स्वप्नलोक से कम नहीं होता। यहां के मणिकर्णिका घाट को मुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। पांचगंगा में पांच नदियों की धाराएं मिलने की कल्पना की गई है। काशी की पांचक्रोशी का विस्तार 50 मील में है। इस मार्ग पर सैकड़ों तीर्थ हैं, अत: इस नगरी में तीर्थों की संख्या अगणित है। यहां के कई मंदिरों में वास्तु एवं शिल्पकला का अनूठा मेल देखा जा सकता है।

नगरी काशी में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना 1916 में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने की थी। विश्वविद्यालय परिसर में ही नया विश्वनाथ मंदिर है, जो उस मंदिर का प्रतिरूप माना जाता है, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था। दो तल वाले इस मंदिर की दीवारों पर धर्म व लोकजीवन से संबंधित चित्र बने हैं, जिनके परिचय संस्कृत व हिन्दी में अंकित हैं और जो बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। विश्वविद्यालय परिसर में ही प्रसिद्ध संग्रहालय 'भारत कला भवन मौजूद है, जिसमें प्राचीन काल से लेकर मुगलों, अंग्रेजों व स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी विभिन्न सामग्री मौजूद हैं। यहां के अन्य विश्वविद्यालयों में काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, तिब्बती शास्त्र विश्वविद्यालय व जामिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी प्रमुख है।

यहांरामनगर का किला भी देखने योग्य है, जो वाराणसी से 14 किलोमीटर दूर है, यहां काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पास से गंगा नदी पारकर भी जाया जा सकता है। 18वीं शताब्दी से पहले जब साम्राज्यों का विभाजन नहीं हुआ था, तो वाराणसी मुगलों का प्रमुख प्रांत था। ब्रिटिश काल में 1910 में बनारस संपूर्ण राज्य बना, जिसकी राजधानी रामनगर थी। 18वीं शताब्दी से यह किला काशी नरेश का आवास है, जो बनारस के राजा का इतिहास बताता है। किला सुबह 9 से एक बजे और 2 से शाम 5 बजे तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है। रामनगर की रामलीला विश्वप्रसिद्ध है। बनारस में हर पर्व पूरी संजीदगी व जिंदादिली के साथ मनाया जाता है। यहां महाशिवरात्रि से लेकर, श्रावण व पुरुषोत्तम मास पर्व, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पर्व तक और चेतगंज की नक्कटैया व नाटी इमली के भरतमिलाप से लेकर दशहरा, दीवाली, मकर संक्रांति, ईद व होली मनाने का अलग ही अंदाज है। बनारसी भाषा का अल्हड़पन और यहां का अलमस्त जीवन सहज ही आगंतुकों के मन को छू जाता है। बनारस का पान, साड़ी व कालीन भी विश्वप्रसिद्ध है।
यूं हुई बाबा विश्वनाथ की काशी वापसी
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि देवी पार्वती को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का मन बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी और वे यहां रहने लगे, जिससे अन्य देवी देवता भी काशी आने लगे। इससे राजा दिवोदास को नगर पर अपना अधिपत्य खोने से काफी दु:ख हुआ और उन्होंने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जिसके वरदान स्वरूप शिवजी को काशी छोडऩे पर विवश होना पड़ा। लेकिन, महादेव का काशीमोह भंग नहीं हुआ, उन्हें उनकी प्रिय नगरी में बसाने के लिए 64 योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ और ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो शिवलिंग की स्थापना कर शिवलोक चले गए। ब्रह्माजी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट भेजकर उनका स्वागत किया और महादेव काशी वापस आ गए और यहीं बस गए।
सर्वेश पाठक