Thursday, November 21, 2013

बौद्धों का महान तीर्थ राजगीर

बुद्ध ने कहा कि जो मेरी बात समझेंगे, उन्हें मै हर काल में उपलब्ध रहूंगा और जो नहीं समझेंगे वे बुद्ध के सामने बैठे रहकर भी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे, क्योंकि बुद्ध हमारी जागरूक अवस्था है। हमारा शरीर समय व क्षेत्र से घिरा है, लेकिन भीतर के चैतन्य का इन दोनों से कोई नाता नहीं, क्योंकि वह दोनों का अतीत है  और आत्मबोध लक्ष्य न होकर प्रक्रिया है, जो हमें गहरे अनंत की ओर ले जाती है। गृहत्याग कर बुद्ध कुशीनगर, राजगृह (बिहार का राजगीर) होते हुए बोधगया पहुंचे और बुद्धत्व प्राप्ति के बाद सारनाथ, श्रावस्ती, कौशाम्बी आदि विविध स्थलों पर ज्ञानगंगा बहाई। भ्रमणकाल में उन्होंने कई बार राजगीर में प्रवास किया था। बुद्ध से जुड़ी इस कड़ी में तथागत और राजगीर के गूढ़ संबंधों को जोडऩे का प्रयास किया जा रहा है। 

जीवन के 29 सालों तक बुद्ध सांसारिक थे। उन्हें सारे सुख प्राप्त थे, पर उन्हेें अधिक चाहिए था। कुछ गहन, जो बाहरी दुनिया में उपलब्ध नहीं था। वे समझ गए कि इसके लिए भीतर छलांग लगानी होगी, फिर उन्होंने समस्त सुख त्याग भीतरी सत्य की तलाश शुरू की। कुछ वर्षों बाद उन्हें वह मिल गया, जिससे संसार विमुख था और फिर वह सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध सात हफ्ते उरुवेला के आसपास रहे, फिर सारनाथ में उन्होंने बुद्धत्व की घोषणा की और कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। वहां कुछ अनुयायियों ने उनसे दीक्षित करने की प्रार्थना की, जिन्हें दीक्षा देकर बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बाद उनके उरुवेला लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। फिर, वे विविध स्थलों पर जाकर बुद्धत्व का प्रकाश फैलाने लगे, जिनमें राजगीर प्रमुख है।

बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल

 कभी मगध साम्राज्य की राजधानी रहा राजगीर आज बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। बुद्ध से जुड़ी तमाम घटनाओं के साक्षी राजगीर में ही बुद्ध के चचेेरे भाई देवदत्त ने उन्हें मारने की कोशिश की थी। राजगीर में ही बुद्ध को उपहारस्वरुप प्रथम मठ मिला और उनके महानिर्वाण के बाद प्रथम बौद्ध सम्मेलन भी यहीं हुआ था। यहां गृद्धकूट पहाड़ी, पिप्पहली गुफा, वेणुवन, जीवककरम मठ, तपोधर्म, सप्तपर्णी गुफा, जरासंध का अखाड़ा, स्वर्ण भंडार, शांतिस्तूप आदि स्थल अतीत का आइना हैं।
राजपाट त्याग सिद्धार्थ अपने सेवक छंदक के साथ कंठक नामक घोड़े पर सवार हो राज्य की सीमा पर पहुंचे, फिर उन्होंने राजकीय वेषभूषा व आभूषण छंदक को सौंप लौटने की आज्ञा दी और स्वयं भिक्षु बन राजगृह की ओर चले गए। वहां आलार कालाम तथा उद्दक रामपुत्र से योग-साधना सीखी। फिर, वे उरुवेला पहुंचे और साधना में खो गए। बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध कई बार राजगृह गए और अनुयायियों को जीवन का संदेश दिया। राजगीर में ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना का विश्व शांति स्तूप बेहद आकर्षक है, जहां तक पहुंचने के लिए रोपवे बना है।

यहां के पुरातन और प्रसिद्ध स्थल

ग्रीधरकूट: इस स्थल को गिरधरकूट या गृद्धकूट भी कहते हैं, इस पहाड़ी का संबंध बौद्ध धर्म से है। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध जब राजगीर आते थे, तो इसी पहाड़ी पर ठहरते थे। इसी पहाड़ी पर भगवान बुद्ध पर जानलेवा हमला हुआ था। भगवान बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त ने यहीं पर उनको मारने का प्रयास किया था। यह पहाड़ी महायान संप्रदाय के कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का मूक गवाह रहा है। इसी पहाड़ी पर प्रसिद्ध लोटस सूत्र भिक्षुओं का समर्पित किया गया था। इस पहाड़ी का जिक्र प्रसिद्ध विद्वान ह्वेनसांग ने भी किया था। आज भी यह पहाड़ी तीर्थयात्रियों के लिए महत्वपूर्ण स्थल है। वर्तमान में इस पहाड़ी पर जापान द्वारा निर्मित शांति स्तूप तथा रोपवे स्थित है।
शांतिस्तूप: यह विश्व शांति स्तूप 400 मीटर ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। यह स्तूप संगमरमर है। इसका निर्माण जापान सरकार ने करवाया है। इस स्तूप में भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित है। इस स्तूप पर या तो आप पैदल जा सकते हैं या रोपवे के माघ्यम से। इस को गृद्धकूट के नाम से भी जाना जाता है।
वेणुवन: ग्रीधरकूट या गिरधरकूट पहाड़ी के निकट ही वेणु है, कहते हैं बुद्ध ने यहां प्रवास किया था। राजगृह के सम्राट बिंबिसार ने एक बार भगवान बुद्ध को बांसों का उपवन भेंट स्वरुप प्रदान किया था। यह उपवन वेणुवन था। इसी उपवन में पहला बौद्ध मठ बना। सम्राट ने बुद्ध को यह वन इसलिए प्रदान किया था कि जब वो राजगृह आएं तो इसी उपवन में आराम करें तथा जनता को उपदेश दें।
सप्तपर्णी गुफा:  राजगीर में ही प्रसिद्ध सप्तपर्णी गुफा है, जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। भगवान बुद्ध भी कई बार इस गुफा में ठहरे थे। उस समय यह गुफा बौद्ध भिक्षुओं के रहने के काम आता था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढिय़ों की चढ़ाई पर है। यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है।
करंद तालाब: माना जाता है कि भगवान बुद्ध जब राजगीर आते थे तो इसी तालाब में स्नान किया करते थे।
तपोधर्म: तपोधर्म मठ गर्म झरने के नजदीक स्थित है। वर्तमान में यहां एक हिन्दू मंदिर का निर्माण किया गया है। यह मंदिर लक्ष्मी-नारायण मंदिर है। भगवान बुद्ध के समय में यहां एक मठ था। सम्राट बिंबिसार भी इस मठ के पास स्थित गर्म झरने में स्नान करने के लिए आते थे।
गर्म पानी का झरना: वैभव पहाड़ी के किनारे गर्म पानी का झरना है। इस झरने में स्त्री और पुरुष के स्नान के लिए अलग-अलग स्थान बने हुए हैं। यहां सप्तधारा झरना भी है। यह झरना सिंह के आकार का है। सात सिंहो के मुंह से गर्म पानी आता है। माना जाता है कि यह गर्म पानी सप्तपर्णी गुफा से आता है। इसके अलावा एक ब्रह्मकुंड भी है। इस कुंड में स्त्री और पुरुष एक साथ स्नान करते हैं। इस कुंड के पानी का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है। इसी कुड के पास लक्ष्मी-नारायण मंदिर बना हुआ है।
जीवककरम: राजगीर में बुद्ध के समय में जीवक नाम के एक महान वैद्य थे। उन्होंने भगवान बुद्ध को एक मठ उपहारस्वरुप प्रदान किया था। यह मठ जीवककरम मठ था।
पिप्पहली हाउस या गुफा:  इस गुफा का उल्लेख पाली साहित्य में मिलता है। इसी गुफा में बौद्ध गुरु महाकश्यप कई बार ठहरे थे। इस गुफा के नजदीक इसी नाम से एक घर भी बना हुआ है।
बिंबिसार का जेल: राजगीर के जंगलों में एक भवन का अवशेष मिलता है। यह भवन गोलाकार था। कहा जाता है कि प्राचीन समय में यह जेल था। इसी जेल में अजातशत्रु ने अपने पिता बिंबिसार को बंद किया था। इस भवन का उस समय में सामरिक दृष्टि से काफी महत्व था। इस अवशेष की खोज 1914 ई. में हुई थी। प्रथम शताब्दी में इस भवन को एक मठ के रुप में उपयोग किया जाता था।
अजातशत्रु का किला: इस किले का निर्माण सम्राट अजातशत्रु ने 6ठीं शताब्दी ई. पूर्व में करवाया था। कहा जाता है कि इसके पास स्थित 6.5 मीटर ऊंचा स्तूप भी अजातशत्रु द्वारा ही बनवाया गया था।
जरासंध का अखाड़ा: महान योद्धा जरासंध इसी अखाड़े में अभ्यास किया करता था। जरासंध ने ही कृष्ण को मारने के लिए मथुरा पर 24 बार आक्रमण किया था।
लक्ष्मी-नारायण मंदिर: गुलाबी रंग का यह मंदिर गर्म पानी के झरने के पास ब्रह्मकुंड के ऊपर बना हुआ है। जैसा कि मंदिर के नाम से ही स्पष्ट है यह मंदिर भगवान विष्णु और उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी को समर्पित है। भगवान बुद्ध के समय में इसी झरने के नजदीक तपोधर्म मठ बना हुआ था। सम्राट बिंबिसार इस झरने में स्नान करने आया करते थे।
प्राचीन राजपथ: प्राचीन काल में यह राजगृह में प्रवेश का मुख्य रास्ता था। माना जाता है कि इसी रास्ते से भगवान कृष्ण ने राजगृह में प्रवेश किया था। अभी इस रास्ते में पत्थर के दो खंभे हैं। यह रास्ता 30 फीट चौड़ा है। रास्ते की चौड़ाई देख कर लगता है कि इस रास्ते से एक साथ कई रथ गुजर सकते थे। कहा जाता है महाभारत काल में जब कृष्ण ने राजगृह में प्रवेश किया था तो उनके रथ की गति से रास्ते के पत्थर जल गए थे। इस रास्ते को देख कर पर्यटक उस समय की घटना का अहसास कर सकते हैं।
साइक्लोपियन दीवार: 40 किलोमीटर लंबा यह दीवार कभी पूरे राजगीर की रक्षा करता था। यह दीवार पत्थरों का बना था। पूर्व मौर्य काल के संरचना का यह एक मात्र प्राप्त अवशेष है। इस दीवार के अवशेष राजगीर से गया जाने वाले रास्ते में देखे जा सकता हैं।
सोन भंडार गुफा: इस गुफा में दो कक्ष बने हुए हैं। ये दोनो कक्ष पत्थर की एक चट्टान से बंद है। कक्ष सं. 1 माना जाता है कि सुरक्षाकर्मियों का कमरा था। जबकि दूसरे कक्ष के बारे में मान्यता है कि इसमें सम्राट बिंबिसार का खजाना था। कहा जाता है कि अभी भी बिंबिसार का खजाना इसी कक्ष में बंद है।
विरायतन: इसमें एक जैन मंदिर तथा संग्रहालय है।
जैन मंदिर: राजगीर के आस-पास की पहाडियों पर 26 जैन मंदिर बने हुए हैं। इन मंदिरों तक पहुंचना काफी कठिन है। लेकिन पर्वतारोहियों के लिए यहां पहुंचना एक रोमांचक यात्रा हो सकता है।
स्वर्ण भंडार: कहा जाता है कि यहां सम्राट जरासंध के सोने का खजाना है। स्थानीय लोगों के अनुसार इस गुफा में अभी जरासंध का सोना बंद है। माना जाता है कि इस गुफा को खोलने का एक ही उपाय है। उपाय यह है कि इस गुफा पर लिखे लिपि को पढ़ा जाय। कहा जाता है कि यह लिपि स्वर्ण भंडार गुफा को खोलने का कोड है।

आस-पास के दर्शनीय स्थल

सूरजपुर बडग़ांव:  राजगीर से 18 किलोमीटर दूर इस जगह पर एक झील तथा प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। यहां तीर्थयात्री वर्ष में दो बार एकत्रित होते हैं। वैशाख (अप्रैल-मई) तथा कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) में दूर-दूर से लोग प्रसिद्ध छठ पर्व मनाने आते हैं।
कुंडलपुर:  राजगीर से 18 किलोमीटर दूर कुंडलपुर के बारे में जैन धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि भगवान महावीर का जन्म यहीं हुआ। यहां एक जैन मंदिर तथा दो लोटस झीलें दिरगा पुष्कर्णी तथा पांडव पुष्कर्णी हैं।
पावापुरी:  राजगीर से 20 किलोमीटर दूर स्थित पावापुरी को अपापुरी भी कहते हैं। माना जाता है कि जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर ने अपना अंतिम उपदेश यहीं दिया था। उन्होनें यहीं पर महापरिर्निर्वाण ग्रहण किया तथा उनका अंतिम संस्कार भी यहीं किया गया। यहां जलमंदिर तथा समोशरण नामक दो प्रसिद्ध जैन मंदिर है।

Sunday, September 15, 2013

बुद्ध की धरती कौशांबी

‘मनन’ को समझाते हुए बुद्ध ने कहा कि स्वयं का प्रेक्षक, साक्षी एवं द्रष्टा होने से सजगता उपजेगी और सत्य प्रतिबिंबित होगा। अत: सजगता लाओ, जिसके प्रकाश में अंधकार विलीन हो जाएगा, फिर क्रोध, आवेग तथा आवेश स्वत: नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने समझाया कि वास्तविक समस्या हमारे भीतर है, जहां प्रकाश की कमी है, अत: अपने भीतर उस प्रकाश को फैलाने की आवश्यकता है। आत्मिक बोध के इस प्रकाश से बुद्ध ने विश्व को आलोकित किया, अपने भ्रमणशील जीवन में उन्होंने तमाम स्थलों पर प्रवास किया। बुद्ध से जुड़ी इस कड़ी में है कौशांबी की सार्थकता को समेकित करने की कोशिश :     
जीवन के 29 सालों तक बुद्ध सांसारिक थे। उन्हें सारे सुख प्राप्त थे, पर उन्हें अधिक चाहिए था। कुछ गहन, जो बाहरी दुनिया में उपलब्ध नहीं था। वे समझ गए कि इसके लिए भीतर छलांग लगानी होगी, फिर उन्होंने समस्त सुख त्याग भीतरी सत्य की तलाश शुरू की। कुछ वर्षों बाद उन्हें वह मिल गया, जिससे संसार विमुख था और फिर वह सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। तथागत लगातार भ्रमणशील रहे और सत्य को संसार के सम्मुख रखना शुरू किया। उन्होंने कहा कि प्रेक्षक, साक्षी, द्रष्टा होना सच्चाई की ओर ले जाने वाला पहला सोपान है। अत: कोई भी कार्य करते वक्त ध्यान हो कि हम प्रेक्षक हैं, भोजन के समय ध्यान रहे कि शरीर आहार ले रहा है और हम साक्षी हैं, ऐसे ही स्वप्नकाल में भी हम सिर्फ द्रष्टा बन सकते हैं, फिर सपने लुप्त हो जाएंगे और एक नई चेतना का उदय होगा।
बौद्ध भूमि के रूप में प्रसिद्ध कौशांबी पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक जिला है, जिसका मुख्यालय मंझनपुर है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है, जहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शीतला मंदिर, दुर्गा देवी मंदिर, प्रभाषगिरी, राम मंदिर आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम से 63 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कौशांबी को पहले कौशाम के नाम से जाना जाता था। यह बौद्ध व जैनों का पुराना केंद्र है। पहले यह जगह वत्स महाजनपद के राजा उदयन की राजधानी थी। माना जाता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध अपने छठे व नौवें वर्ष यहां भ्रमण के लिए आए थे।
बौद्ध काल में षोडश महाजनपदों में से एक कौशांबी को धनिकों की नगरी कहा जाता था। इतिहासकारों के अनुसार प्रसिद्ध धन्नासेठ कौशांबी के ही निवासी थे। तब यमुना नदी से ही पूरा व्यापार होता था। बुद्ध श्रावस्ती से कई बार चतुर्मास गुजारने के लिए कौशांबी आए। घोषिता राम एवं कुकक्टा राम नाम के दो व्यापारियों ने उनके ठहरने के लिए यहां विहार बनवाया था, जहां आज भी बुद्ध से जुड़ी यादें संरक्षित हैं। कहते हैं कि कलिंग युद्ध के बाद जब अशोक को हिंसा से नफरत हो गई, तो उसने भी कौशांबी की शरण ली और इसे अपना ठिकाना बनाते हुए यहीं से अहिंसा का संदेश प्रसारित करना शुरू किया। सम्राट अशोक ने कौशांबी में अशोक स्तंभ का भी निर्माण कराया। उत्खनन में मिले प्रमाण भी साबित करते हैं कि कौशांबी एक समृद्ध और विकसित नगरी थी, सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद अगर हिंदुस्तान में कहीं नगरीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं, तो वह कौशांबी भी है।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व कौशांबी प्रवास के दौरान बुद्ध ज्यादातर परलेयक वन में ही रहते थे। कहते हैं इस वन का राजा परलेयक हाथी बुद्ध के प्रभाव से उनके शरणागत हो गया था। परलेयक वन में देवश्रव्य कुंड है, जिसमें बुद्ध स्नान करते थे और स्नान के बाद परलेयक हाथी अपने एक बंदर मित्र के साथ मिलकर उन्हें खाने के लिए फल देता था। बुद्ध जब कौशांबी से जाने लगे, तो परलेयक काफी दूर तक उनके साथ गया, उनके लौटने को कहने पर वह वहीं रुक गया और विछोह में प्राण त्याग दिए। तत्कालीन राजा उदयन ने उसी स्थल पर परलेयक हाथी का स्मारक बनवा दिया। महराज उदयन की चर्चा के बगैर कौशांबी का इतिहास अधूरा है। बौद्ध काल के बाद उदयन का साम्राज्य फैला और गढ़वा का किला उनके वैभव की गवाही है। वैदिक काल में सशक्त पहचान बनाने वाली कौशांबी का मध्यकाल भी गौरवशाली रहा है। कड़ा का इतिहास मध्यकाल के सुनहरे पन्नों में दर्ज है, जहां की धरती को विद्रोह के लिए सबसे अनुकूल माना जाता था। 
हालांकि, परलेयक वन की जानकारी कौशांबी वासियों को नहीं थी, वे इसे किस्से कहानियों का हिस्सा मानते थे, लेकिन एक शोधकर्ता ने जब इसकी खोज की, तो सभी का ध्यान इस ओर आया। यह वन यमुना की तलहटी में प्रभाषगिरि के आस-पास फैला हुआ था। यहीं पर देवश्रव्य कुंड व परलेयक हाथी के स्मारक का भी पता चला, जिनका जिक्र बौद्ध धर्म के पिटक ग्रंथों में है। प्रभाषगिरि पर्वत से करीब 8 किमी दूर चंपहा बाजार के पास गांव की आबादी से दूर परलेयक हाथी का स्मारक मिला, जिसे आजकल हाथी थान के नाम से जाना जाता है।
पहुंचने के साधन : कौशांबी पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा वाराणसी है। कौशांबी रेल मार्ग के जरिए भी भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा है। यह जगह सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख स्थानों से जुड़ी हुई है। कुल मिलाकर बुद्ध को जानने समझने की आतुरता कम करनी हो, तो उनसे जुड़े स्थलों का भ्रमण सहायक होगा। इसके लिए मन को स्थिर कर छोटी-बड़ी जगह का परहेज किए बगैर क्रम से सभी स्थ्लों तक जाना होगा। इन सबमें सबसे ज्यादा जरूरी है बुद्ध को रूह से महसूस करना, यदि यह संभव नहीं, तो ये स्थल महज तफरीह के लिए हैं।
-सर्वेश पाठक

Monday, August 19, 2013

बुद्धिज्म की साक्षी श्रावस्ती

भगवान बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ और पारिवारिक नाम गौतम था। ‘बुद्ध’ तो उनकी जागरूक अवस्था थी, जिसका बोध होने के बाद उन्होंने सारनाथ में इसकी घोषणा की। वे जानते थे कि ‘मन’ ही हमारा सबसे बड़ा धोखा है, इसलिए वे ‘मन’ यानी स्वयं का दर्पण बन इसके सामने उपलब्ध हो जाने की बात समझाते थे। उन्होंने संघर्ष, तप, संकल्प आदि पर जोर नहीं दिया, बल्कि आत्मिक बोध पर बल दिया। वे कहते थे कि ‘मन’ की अतल गहराइयों में ही बुद्धत्व छिपा है, जिसने वहां कदम रखे, उसने एक गहन मौन तथा अगम शांति की अनुभूति की और स्वयं को बुद्ध के समीप पाया। उन्होंने क्षणभंगुरता को रेखांकित करते हुए कहा कि जिसने पल-पल की परिवर्तनशीलता को समझा, उसी ने धर्म में प्रवेश कर बुद्धत्व की प्राप्ति की। बुद्ध से जुड़ी इस कड़ी में है श्रावस्ती की वीथिकाओं को खंगालने का प्रयास:

भ्रमणशील बुद्ध ने समूचा जीवन विश्व को सत्य के बोध से आलोकित करने में लगाया। उन्होंने मृत्यु और भय को समझाते हुए कहा कि जीवन की पूर्णता ही मृत्यु है, इससे हमें पूरे जीवन का बोध होता है कि वह कैसा था! उन्होंने मृत्यु से भयभीत होने की जगह जीवन का बोध कराया और कहा कि स्वयं के अस्तित्व में प्रवेश ही मौन है, जो कामवासना को ब्रह्मïचर्य में, क्रोध को करुणा में, भय को प्रार्थना तथा दुख को तपश्चर्या में बदल देता है। शांति और निर्वाण के लिए शरीर और मन के प्रति जागरूक रहना ही एकमात्र मार्ग है, जो समस्त दुखों से छुटकारा दिला सकता है।
श्रावस्ती में बुद्ध के चमत्कार
करीब 35 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ, बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे, फिर उन्होंने धर्म-चक्र प्रर्वतन किया और चल पड़े विश्व को बुद्धत्व से आलोकित करने! भ्रमणकाल में तमाम स्थलों पर उन्होंने धर्मोपदेश दिया, किंतु सर्वाधिक प्रवास संभवत: श्रावस्ती रहा, जहां उन्होंने लगभग 25 वर्ष बिताए और कई चमत्कार किए। तभी से कौशल साम्राज्य की राजधानी रही श्रावस्ती प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल के रूप में विख्यात है। बौद्ध कथाओं के अनुसार श्रावस्ती में अन्य मतों के आचार्यों की चुनौती तथा अनुयायियों के अनुग्रह पर भगवान बुद्ध ने चार चमत्कार दिखाए, जो ज्वलन, तपन, वर्षण व विद्योतन हैं। इनके अंतर्गत वहां उपस्थित जनसमूह ने आकाश में बुद्ध के शरीर से ज्वालाएं, गर्मी, जल व प्रकाश निकलते देखा। बुद्ध के चमत्कारों को देख कौशल राजा प्रसेनजीत भी उनके अनुयायी बन गए।
पुरातनता की साक्षी श्रावस्ती
आजकल महेथ-सहेथ गांव के रूप में यूपी के गोंडा और बहराइच जिले की सीमा से सटे राप्ती नदी के तट पर स्थित श्रावस्ती के नाम को लेकर कई किंवदंतियां हैं। पुराणों में यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी, फिर भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया। महाभारत के अनुसार पृथु की छठीं पीढ़ी के राजा श्रावस्त ने यह नगर स्थापित कराया, इसलिए इसे ‘श्रावस्ती’ कहा गया। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन से जुड़ी समस्त वस्तुएं सुलभता से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ा। एक अन्य उल्लेख में यहां सवत्थ (श्रावस्त) नामक प्रतिष्ठित ऋषि रहते थे, जिनके नाम पर नगर का नाम ‘श्रावस्ती’ हो गया। एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार वहां 57 हजार परिवार रहते थे और कौशल-नरेशों को सबसे ज़्यादा राजस्व इसी नगर से मिलता था। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा नगर था। इसके अलावा इर्द-गिर्द मजबूत सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे थे। प्राचीन कला-साहित्य में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन है, जिससे पता चलता है कि वे काफी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियां एकसाथ बाहर निकल सकती थीं। चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना होती थी। यहां के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान बुद्ध के लिए ‘जेतवन’ बिहार बनवाया था, जहां आजकल बौद्ध धर्मशाला, मठ और मंदिर है।
अतीत को सहेजे महेथ-सहेथ
करीब 400 एकड़ में फैला ‘महेथ’ मूल श्रावस्ती माना जाता है। यहां की खुदाई में पुरातन नगर के दो विशाल दरवाजे, परकोटे और अन्य संरचनाएं मिलीं, जो इसकी प्राचीन भव्यता दर्शाती हैं। शोभानाथ का मंदिर भी यहीं है, जिसे जैन तीर्थंकर संभवनाथ का जन्मस्थल मानते हैं। यह भी मान्यता है कि यहां की कच्ची और पक्की कुटी प्रारंभ में बौद्ध मंदिर थे, जिन्हें बाद में ब्राह्मी मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया था। महेथ के दक्षिण-पश्चिम में निकट ही 32 एकड़ में सहेथ फैला है। कभी, यही पर पर ‘जेतवन’ था। यहां अनेक मठ, स्तूप और मंदिर हैं। इनमें एक प्रारंभिक स्तूप भी मिला, जिसे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का मानते हैं और इसमें महात्मा बुद्ध के स्मृति चिह्न हैं। यहां बुद्ध की एक विशाल मूर्ति भी मिली, जो फिलहाल कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में है।
बुद्ध को श्रावस्ती से जोड़ती बातें
यहां पक्की कुटी को अंगुलीमाल का स्तूप माना जाता है, जो खूंखार डाकू था और लोगों की उंगली काटने के बाद माला बनाकर पहनता था। एक बार वह अपनी मां को मारने जा रहा था, तभी बुद्ध मिल गए। उनके उपदेशों ने डाकू पर ऐसा प्रभाव डाला कि वह अपराध त्यागकर महात्मा की शरण में आ बौद्ध मार्ग पर चलने लगा। श्रावस्ती में ‘जेतवन’ के प्रवेश द्वार के निकट ‘आनंदबोधि’ वृक्ष है। कहते हैं कि बुद्ध ने इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया था। धारणा है कि यहां ध्यान लगाने वाले को पुण्य मिलता है। बुद्ध और श्रावस्ती से जुड़ी तमाम कथाएं भी हैं, जिनमें प्रसिद्ध है भिक्षुणी पटाचारा की कथा! श्रावस्ती के धनिक की बेटी पटाचारा ने एक सेवक से प्रेम-विवाह कर लिया। उसे दो पुत्र हुए, दूसरे पुत्र के जन्म से पहले मायका जाते वक्त पटाचारा के पति को राह में सर्प ने डंस लिया, फिर दोनों बच्चे भी असमय काल में समा गए। मायका पहुंचने से पहले ही उसे माता-पिता की मृत्यु की सूचना मिली, फिर वह विक्षिप्त हो ‘जेतवन’ पहुंची और बुद्ध की शरणागत हो गई। एक दिन स्नान के वक्त उसने देखा कि शरीर पर गिरने वाला जल क्षणांश में धरती में समा जा रहा है, फिर उसे जीवन-मरण का बोध हो गया। उसने सुना जैसे बुद्ध कह रहे हों, ‘पटाचारे, समस्त प्राणी मरण धर्मा है’। कालांतर में वह उन साधिकाओं में गिनी गई, जिन्हें जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त हुआ।
तफरीह का वक्त और साधन
श्रावस्ती का निकटतम एयरपोर्ट लखनऊ है, जो यहां से 176 किमी. दूर है। लखनऊ अन्य प्रमुख शहरों से वायुमार्ग से जुड़ा है। रेल द्वारा जाने पर बलरामपुर यहां का नजदीकी स्टेशन है, जो 17 किमी. की दूरी पर है। इसके अलावा आसपास के शहरों से सड़क मार्ग से आसानी से श्रावस्ती पहुंचा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की अनेक बसें श्रावस्ती को दूसरे शहरों से जोड़ती हैं। वैसे तो यहां कभी भी जाया जा सकता है, लेकिन अक्टूबर से मार्च का वक्त बेहतर है।
सर्वेश पाठक

Thursday, July 18, 2013

बोधगया: जहां बुद्धत्व में लीन हुए बुद्ध

इन दिनों बिहार को बुरी नजर लग गई है। कुछ दिन पहले बोधगया में सीरियल ब्लास्ट हुए, तो हाल ही में बच्चों की थाली में जहर परोसा गया। दोनों ही घटनाओं में कई मासूमों ने अपनी जान गंवाई। सरकार की छीछालेदर हो रही है, जो उचित भी है। अगर कोई सरकार अपनी जनता का जीवन और उसकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती, तो उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है। इन घटनाओं ने कुछ साल पहले एनबीटी में प्रकाशित मेरे इस लेख की ओर मेरा ध्यान खींच ही लिया, आखिर बुद्ध की धरती पर यह क्या हो रहा है। करीब 15 साल हो गए गयाजी गए हुए, तब न तो बिहार ऐसा था, न बोधगया, अब बिहार में विकास की बयार तो बही, पर साथ ही आतंक और भ्रष्टाचार भी विकसित हुए। चलिए, कुछ सकारात्मक सोचते हैं और आपको पढ़ाते हैं बुद्ध की नगरी से जुड़ा यह आलेख:

धम्मम् शरणम् गच्छामि

ध्यान को समझाते हुए बुद्ध ने कहा, ‘श्वसन से प्रारंभ करो, क्योंकि यह सबसे सरल है, जो स्वयं होता है। इस पर केंद्रित होओ, फिर प्रतिबिंब की आवश्यकता नहीं और तुम अनंत में चले जाओगे।’ ये वहीं सिद्धार्थ थे, जो सत्य तलाशते बुद्ध बने, फिर विश्वव्यापी हो गए। उनकी तृष्णा उरुवेला में शांत हुई, जो आज बोध गया है।

बुद्ध दो बातें बताए: ‘अपनी श्वासों को देखो, अथवा अपनी चाल को! वे स्वयं दोनों काम करते थे। कुछ घंटे बोधिवृक्ष के नीचे बैठते और अपनी श्वासों को देखते, जब पैरों में थकान महसूस होती और वे जकड़ जाते, तब वे एक घंटे टहलते, इस दौरान वे अपनी चाल देखते- एक पैर आगे बढ़ता, फिर दूसरा और फिर पहला पैर... तब वे लौट आते। यदि आप बोधगया गए हों, जहां सिद्धार्थ ने बुद्धत्व पाया, तो वहां बोधिवृक्ष के समीप छोटा रास्ता दिखेगा, जिस पर बुद्ध चला करते थे। बुद्धिज्म में ध्यान की यह चमत्कारी प्रक्रिया है, ‘यदि हम कोई वस्तु मौन होकर देखते हैं, तो उसमें विलीन हो जाते हैं, वहीं अनंत है।’ विष्णु का नौवां अवतार मानकर हिन्दू भी बुद्ध में गहरी आस्था रखते हैं।

इतिहास के आइने में बोध गया

करीब 528 ई.पू. वैशाख (अप्रैल-मई) में सिद्धार्थ ने सत्य की खोज में घर त्यागा। फिर, वे निरंजना नदी के किनारे उरुबिल्व (उरुवेला) गांव पहुंचकर पीपल के पेड़ के नीचे साधना में लीन हो गए। एक दिन स्थानीय कन्या सुजाता ध्यानमग्न सिद्धार्थ के लिए एक कटोरा खीर तथा शहद ले आई, जिसे ग्रहणकर वे फिर साधना में खो गए। करीब तीन दिन व रात तप कर वैशाख पूर्णिमा को उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। फिर, उन्होंने वहां 7 हफ्ते अलग-अलग स्थलों पर ध्यान करते हुए बिताया। कालांतर में यह गांव सम्बोधि, वैजरसना, महाबोधि नामों तथा निरंजना नदी फल्गु के रूप में प्रसिद्ध हुई, हालांकि ‘बोधगया’ का उल्लेख 18वीं शताब्दी से मिलता है। पीपल का वह वृक्ष बोधिवृक्ष के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिससे जन्मा एक पौधा सम्राट अशोक ने पुत्री संघमित्रा तथा पुत्र महेंद्र के हाथों श्रीलंका भेजा था। मूल वृक्ष नष्ट होने पर श्रीलंका के अनुराधापुर से पौधा लाकर यहां फिर लगाया गया। कहते हैं, वर्तमान बोधिवृक्ष मूल वृक्ष की पांचवीं पीढ़ी है, जिसकी शाखाओं में धर्मावलंबी वस्त्र बांधते हैं। समीप ही सुजाता नामक तालाब है। मान्यता है कि है, इसी तालाब में स्नान कर सुजाता ने बुद्ध को खीर खिलाई थी। बुद्ध से जुड़े चार पवित्र स्थलों में शुमार महाबोधि मंदिर को सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनवाया। पांचवीं-छठीं शताब्दी में निर्मित वर्तमान मंदिर पूर्णरूप से ईंटों से बने शुरुआती मंदिरों का साक्षी है, जिसे गुप्त काल का मानते हैं। यहां बुद्ध से जुड़ी घटनाओं के अभिलेख हैं, खासकर अशोक द्वारा बनवाए मंदिर, कटघरे व स्मारक शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण हैं।

बुद्ध ने किया बुद्ध का निर्माण

मान्यता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध प्रतिमा का संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहते हैं, मंदिर निर्माण के वक्त इसमें मूर्ति स्थापना का निर्णय हुआ, लेकिन ऐसा शिल्पकार नहीं मिला, जो बुद्ध को समझ उनकी प्रतिमा बना सके। सहसा एक दिन एक तेजस्वी आया और मूर्ति निर्माण की इच्छा जताई, लेकिन कुछ शर्तें रखीं, जिसमें पत्थर का स्तंभ तथा एक लैम्प दिया जाना शामिल था। उसने छह महीने का समय मांगा, जिससे पहले मंदिर के पट खोलना वर्जित था। शर्तें मानी गईं, लेकिन व्यग्र ग्रामीणों ने तय अवधि से चार दिन पहले मंदिर का दरवाजा खोल दिया। भीतर अतिसुंदर प्रतिमा थी, जिसकी हृदयस्थली छोड़ प्रत्येक अंग मोहक था। हृदयस्थली पूर्ण रूप से तराशी नहीं थी। बाद में एक बौद्ध भिक्षु वहां रहने लगा, एक भोर बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि मूर्ति उन्होंने स्वयं बनाई है। यह प्रतिमा बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है।

महाबोधि मंदिर में समाधिस्थ बुद्ध

बुद्ध की यथार्थता को बखानते महाबोधि मंदिर में विश्वभर से हर धर्म के लोग आध्यात्मिक शांति तलाशने आते हैं। करीब 60 वर्गफुट चौड़े तथा 180 फुट ऊंचे पिरामिड पर स्थित दो मंजिली मंदिर में सुनहरे गिलटवाली बुद्ध प्रतिमा स्थापित है। शिलालेखों के अनुसार सन 1105 में ब्रह्मदेशीय बौद्धों ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, तभी से यहां दिव्य ज्ञान प्राप्त बुद्ध की मूर्ति है। ऊपरी मंजिल पर उपासना गृह है। पूर्व में दक्षिण भारतीय शैली का तोरण है, जिसकी दीवारों पर विविध मुद्राओं में बुद्ध, कमल, पक्षी और अन्य प्राणियों सहित जातक कथाएं अंकित हैं। चारों कोनों में चार शिखर हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में भी इसकी चर्चा है। कुछ इतिहासकार इसे पहली शताब्दी से जोड़ते हैं। हालांकि, 1877 में अंग्रेजों ने मंदिर पर ध्यान दिया, 1880 में जनरल ऐलेक्जेंडर कंनिंगहोम ने इसका जीर्णोद्धार कराया, फिर बोधगया की रौनक लौटी। मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है, जिसमें बुद्ध की विशाल मूर्ति पदमासन की मुद्रा में है। कहते हैं, यह मूर्ति वहीं स्थापित है, जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग है, जो यहां प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। परिसर में वे सात स्थान भी चिन्हित हैं, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह बिताए थे।

भव्य एवं शांत बौद्ध परिसर

मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की सात फुट ऊंची वज्रासन मुद्रा वाली प्रतिमा है। चारों ओर विविध रंगों के पताके मूर्ति का आकर्षण बढ़ाते हैं। कहते हैं सम्राट अशोक ने इसे पृथ्वी का नाभिकेंद्र बताते हुए यहां हीराजडि़त सिहांसन स्थापित कराया। प्रतिमा के आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के पदचिन्ह हैं, जिन्हें धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक मानते हैं। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़े होकर बिताया था। यहां बुद्ध की इसी अवस्था वाली मूर्ति है, जिसे अनिमेश लोचन कहते हैं। उत्तरी भाग चंकामाना नाम से प्रसिद्ध है, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्ताह बिताया था। यहां काले पत्थर से बना कमल का फूल है, जो बुद्ध का प्रतीक है। उत्तर पश्चिम में छतविहीन भग्नावशेष है, जिसे रत्नाधारा कहते हैं। यहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह बिताया था। दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का प्रयोग विभिन्न देशों ने यहां लगे अपने पताके में किया है।

बुद्धम् शरणम् गच्छामि

कहते हैं, बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से कुछ दूर अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवां तथा मंदिर के दायीं ओर मूचालिंडा झील के समीप छठा सप्ताह बिताया था। चारों ओर से वृक्षों से घिरी इस झील के बीचो-बीच बुद्ध प्रतिमा है, जिसकी रक्षा विशाल सांप कर रहा है। दंतकथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने लीन थे कि उन्हें आंधी का ध्यान भी नहीं रहा, फिर मूसलाधार बारिश होने पर सर्पराज मूचालिंडा आए उनकी रक्षा की। निरंजना नदी के किनारे दो किलोमीटर आगे झाडिय़ों में एक स्तूप है, जिसे गोपबाला सुजाता का घर मानते हैं। मंदिर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सातवां सप्ताह बिताया था। यहीं पर बर्मा के दो व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय प्रार्थना के रुप में बुद्धम् शरणम् गच्छामि (मैं अपने को बुद्ध को सौंपता हूं) का उच्चारण किया। तभी से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।

धम्मम् शरणम् गच्छामि

मंदिर के उत्तर पश्चिम में 1938 में तिब्बत के करमापा संप्रदाय ने दो विहार बनवाए। बेहतरीन सजावट वाली दो मंजिली इस मंदिर में बुद्ध प्रतिमा के अलावा 200 कुंतल का पीतल का धर्मचक्र है। मानते हैं कि इसे तीन बार बायें से दाहिने घुमाने से पाप कम होते हैं। यहां चीनी बौद्ध मंदिर भी है, जिसकी मूर्ति चीन से आई है। इसकी बनावट इंडो-चीनी शैली की है। इसके अलावा यहां पर अन्य देशों के विहार भी हैं, जिनमें थाई, भूटान, तिब्बती, नेपाल और जापान प्रमुख हैं, जिनकी भव्य स्थापत्य शैली देखते ही बनती है। अंत में बुद्ध की एक और गगनचुंबी प्रतिमा है, जिसका अनावरण 1989 में दलाई लामा ने किया था। विश्वशांति के प्रतीक के रुप में बोधगया में मैत्रेय बौद्ध की मूर्ति भी है।

यात्रा का समय

यहां पहुंचना बेहद आसान है, सड़क मार्ग से गया, पटना, नालंदा, राजगीर और राज्य के अन्य स्थानों से बोध गया तक बसें जाती हैं। जबकि, रेल मार्ग से बोध गया के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन गया जंक्शन है, जो यहां से 12 किलोमीटर दूर है। अनुकूल समय अक्टूबर से मार्च है। मौसम की तपिश के कारण गर्मी छोड़ पूरे साल बोध गया जा सकते हैं। मई में बुद्ध पूर्णिमा पर यहां विश्वभर से अनुयायी जुटते हैं।

सर्वेश पाठक

Friday, January 25, 2013

‘बुद्ध’ की लुंबिनी, लुंबिनी के ‘बुद्ध’

बुद्धम्  शरणम्  गच्छामि...
‘बुद्ध’! इस शब्द में ही ऐसा चुंबकत्व है, जिसे आज तक तमाम ध्यानी, ज्ञानी अपने अपने शब्दों में परिमार्जित करते आ रहे है, लेकिन अभी भी वे मानो बुद्ध से हजार, लाख गुना दूर हों। जी हां, बुद्ध न तो विश्लेषण हैं और ना ही संश्लेषण! वे तो अतिक्रमण हैं, जो मन के भीतर पैठ मन को बाहर खींच लाते हैं अर्थात आपको, आपका प्रतिबिंब बना देते हैं, ताकि आप स्वयं से साक्षात्कार कर सकें। भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘काम, क्रोध, मद (अहंकार), लोभ, अधिकार, ईष्या आदि हमारे अपने ही मन की उपज हैं, जबकि बुद्ध हमारा अंत:स्थ स्वभाव है। इसे सृजित करने, विकसित करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह तो स्वयं निर्मित है। इसे खोलकर ही इसकी अतल गहराई में उतरा जा सकता है, इसे खोजकर ही इससे पार पाया जा सकता है। मन में उतरना ही ध्यान से अनंत में प्रवेश है, जो पहुंचा, वहीं जागा और अनंत में विलीन हो सर्वव्यापी हो गया।’

सच ही है कि भगवान बुद्ध दुनिया का एक रहस्य हैं। कहते हैं, जहां समस्त धर्मावलंबियों का ध्यान, ज्ञान व अध्यात्म पूर्ण होता है, उसके कई चरण आगे बुद्धत्व का प्रारंभ होता है और इसका परिमार्जन अनंत में ले जाकर सर्वव्यापी बना देता है। भगवान तो बहुत हुए, लेकिन बुद्ध ने चेतना के जिस शिखर को छुआ, वैसा किसी और ने नहीं। बुद्ध का पूरा जीवन सत्य की खोज और निर्वाण को पा लेने में ही लग गया। उन्होंने मानव मनोविज्ञान और जीवन से जुड़े सुख-दुख के हर पहलू पर कहा और उसके समाधान बताए। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने रहस्यों को जितनी सरलता से तथा जितना ज्यादा समझाया, उतना किसी और ने नहीं। धरती पर अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ, जो बुद्ध के बराबर कह गया। सैकड़ों ग्रंथ हैं, जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य कि उनमें कहीं दोहराव नहीं है। जिसने बुद्ध को पढ़ा और समझा वह भीक्षु हुए बगैर नहीं बचा, क्योंकि बुद्ध सिर्फ बुद्ध जैसे हैं, उनके जैसा कोई नहीं। तो, चलिए! हम आपको भगवान गौतम बुद्ध तथा उनसे जुड़े उन तमाम स्थलों, घटनाओं, कथानकों, विचारों आदि से जोडऩे का प्रयास करते हैं। इसकी शुरूआत हम लुंबिनी से करते हैं, जहां भगवान बुद्ध ने नवजात सिद्धार्थ के रूप में शाक्य वंश के प्रतापी राजा शुद्धोधन के यहां जन्म लिया था।

लुंबिनी और बुद्ध
दरअसल, लुंबिनी दर्शन के बिना बुद्ध तथा बौद्ध धर्म की सार्थकता पूर्ण होना असंभव है, क्योंकि भगवान गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी, कपिलवस्तु (शाक्य महाजनपद की राजधानी) के निकट 563 ई. पू. में हुआ था, जो आज दक्षिण मध्य नेपाल (पूर्ववर्ती भारत) में है। महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां एक स्तंभ बनवाया, जिस पर भगवान बुद्ध के जन्म से जुड़े तथ्य अंकित हैं। आज यह क्षेत्र रूमिनदेई नाम से जाना जाता है, जो भारतीय सीमा से 10 किमी दूर है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शाक्य वंश में जन्मे बुद्ध गौतम गोत्र के थे, उनके पिता और शाक्यों के राजा शुद्धोधन ने उनका नाम सिद्धार्थ रखा, जो बाद में महात्मा गौतम बुद्ध के नाम से विश्वप्रसिद्ध हुए। गौतम बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं, जो बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बने। कहते हैं, कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की रानी महामाया अपने मायके जाते हुए लुंबिनी नामक मनोरम स्थल पर रुकीं और यहीं उन्होंने बालक सिद्धार्थ को जन्म दिया। इसीलिए, यह स्थल बौद्ध धर्म के अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र तीर्थो में गिना जाता है।

सिद्धार्थ और यथार्थ
प्रचलित कथाओं के अनुसार महात्मा बुद्ध के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे। फिर, राजा शुद्धोदन ने आठ भविष्य वक्ताओं से स्वप्न का अर्थ पूछा, तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र होगा। यदि वह घर में रहा, तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया, तो संन्यासी बनेगा और अध्यात्म के प्रकाश से विश्व को आलोकित कर देगा। राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, सिद्धार्थ सदा किसी ङ्क्षचता में डूबा दिखायी देता था। अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे, तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा, उसने उनके जीवन की दिशा बदल डाली। उनकी दृष्टि चार दृश्यों पर पड़ी (संस्कृत चतुर निमित्त)-  एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति, फिर एक रोगी, फिर एक शवयात्रा को देख वे संसार से और भी विरक्त हो गए। फिर, उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी देखा, जिसके चेहरे पर शांति और अपूर्व तेज था, सिद्धार्थ अत्यधिक प्रभावित हुए। उनके मन में निवृत्ति के प्रति नि:सारता तथा निवृतिमर्ण की ओर संतोष भाव उत्पन्न हो गया। वो समझ गये कि सबका जन्म होता है, बुढ़ापा आता है, बीमारी होती है और एक दिन सबकी मौत हो जाती है। यह सत्य सिद्धार्थ का जीवन दर्शन बन गया। विवाह के दस वर्ष बाद उन्हें पुत्र हुआ। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुंह से सहसा निकल पड़ा- ‘राहु’- अर्थात बंधन! उन्होंने बेटे का नाम राहुल रखा। फिर, सांसारिक बंधनों द्वारा छिन्न-विछिन्न होने से पहले उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और एक  दिन रात्रि प्रहर में 29 वर्षीय युवा सिद्धार्थ निकल पड़े ध्यान, ज्ञान के प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने! उन्होने अपना समृद्ध जीवन, अपनी जाति, पत्नी, बच्चे, सबको छोड़ संन्यास अपनाया, ताकि वे जन्म, बुढ़ापे, दर्द, बीमारी, मौत आदि के उत्तर खोज सकें।

आज भी है धरोहर
भगवान बुद्ध ने हिमालय की पहाडिय़ों में बसे लुंबिनी में जीवन के 29 साल बिताए, फिर वे गृह त्यागकर सत्य एवं ज्ञान की तलाश में निकल पड़े, जिसका वर्णन यहां के तमाम शिलालेखों पर अंकित है। लुंबिनी के स्मारकों में प्रमुख है लगभग 24 फुट ऊंचा अशोक स्तंभ, जिस पर अशोक के अभिलेखों के अलावा भी कई अभिलेख हैं। इसके निकट ही दो छोटे स्तूप हैं। यहां कई बौद्ध मंदिर हैं, खासतौर पर माता मायादेवी का मंदिर काफी प्रसिद्ध है, जिसमें भव्य प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में बुद्ध का जन्म दर्शाया गया है। यहां वह तालाब भी देखा जा सकता है, जहां जन्म के बाद सिद्धार्थ को पहली बार स्नान करवाया गया था। मान्यता है कि इस तालाब में सिद्धार्थ के जन्म के बाद उनकी माता मायादेवी ने भी स्नान किया था। महल के अवशेष भी यहां नजर आते हैं। इसके अलावा, बौद्ध धर्म में बेहद पवित्र माने जाने वाले चार बोधि वृक्षों में से एक यहां स्थित है। आसपास अनेक स्मारक हैं, जो खंडहरों में तब्दील हो चुके हैं। तिलर नदी तक फैले ये खंडहर स्तूप एवं विहारों के हैं। नेपाल की राजधानी काठमांडू से दूर होने के कारण यहां प्राय: बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले ही पहुंचते हैं, हालांकि यह स्थान भारतीय सीमा के काफी नजदीक है। यहां जाने के लिए आपको पहले काठमांडू जाना होगा, फिर वहां से बस या टैक्सी के जरिए लुंबिनी का सफर तय कर सकते हैं। यूनेस्को ने 1997 में लुंबिनी को वल्र्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था।
सर्वेश पाठक

Saturday, August 27, 2011

बुद्धत्व का सार सारनाथ

भगवान बुद्ध कहते हैं, जीवन की वास्तविक कला मौन है। इसेके पाने के लिए मन के पार जाकर इसे नियंत्रित करना है। यहीं वह सीमा है, जहां से हम ध्यान की ओर बढ़ते हैं और फिर बुद्ध बनकर ध्यान से अनंत में प्रवेश कर जाते हैं। जीवन को ध्यान और अध्यात्म से जितनी सरलता से बुद्ध ने जोड़ा, उतना शायद ही किसी ने जोड़ा हो। बोधगया में सत्य का बोध होने के बाद बुद्ध काशी के निकट सारनाथ पहुंचे और बुद्धत्व का पहला उपदेश दिया। यहीं वजह है कि सारनाथ को बुद्धत्व का सार माना जाता है।         
भगवान बुद्ध ने जीवन और ध्यान के संयोजन को समझाते हुए कहा कि शून्य में जाना ध्यान की पहली सीढ़ी है, इसके लिए जरूरी नहीं कि कोई एक विधि हो! शांत वातावरण को सुनना, प्रकाश तथा अंधकार में विलीन होना भी ध्यान की अतल गहराई में उतरने जैसा है। सभी विधियां आंतरिक मौन की ओर ले जाती हैं। यह विधियां सक्रिय हों या निष्क्रिय कोई फर्क नहीं पड़ता, लक्ष्य एक होना चाहिए, मौन को उपलब्ध होना ताकि सभी प्रकार के विचार विलीन हो जाएं और हम सिर्फ दर्पण रह जाएं। यहीं से अनंत प्रारंभ होगा, जिसकी व्यापकता सर्वत्र होगी।
बुद्धिज्म की शुरुआत
बुद्धत्व प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ ने बुद्ध के रूप में अपने ज्ञान के प्रकाश से संसार को आलोकित करना शुरू किया। बोधगया से नई चेतना के साथ बुद्ध काशी से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित सारनाथ पहुंचे, जहां से बुद्धत्व का संचार प्रारंभ हुआ। यहीं पर भगवान बुद्ध ने पहला उपदेश देते हुए धर्म चक्र प्रवर्तन प्रारंभ किया। उन्होंने कौडिन्य व अन्य पंच अनुयायियों के साथ सत्संग कर नये मत की दीक्षा दी। इसी प्रथम प्रवचन को उन्होंने धर्मचक्रप्रवर्तन बताया, जो कालांतर में भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में सारनाथ का प्रतीक माना गया। बौद्धकाल में इसे ऋषिपत्तन (पाली-इसीपत्तन) कहते थे, क्योंकि काशी के निकट होने से यह स्थल ऋषि-मुनियों को प्रिय था। बुद्ध के जीवनकाल में ही काशी के श्रेष्टी नंदी ने ऋषिपत्तन में एक बौद्ध विहार बनवाया, जिसे ‘ऋषिपत्तन मृगदाय’ ·हा गया। इसका संबंध बोधिसत्व की एक कथा से भी है, जिसमें यहां मृगदाव नामक मृगों का वन था। कहते हैं बोधिसत्व अपने किसी पूर्वजन्म में यहां मृगों के राजा थे। उन्होंने अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हिरणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सार-या सारंग (मृग)- नाथ कहने लगे।
एक किंवदंती के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का केंद्र था। पुराणों में शिव को भी सारंगनाथ कहा गया है और काशी की समीपता के कारण यह शिवोपासना की भी स्थली बन गया। बाद में मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया। इसकी पुष्टि यहां के सारनाथ नामक शिवमंदिर से होती है। श्रावण में यहां विशाल मेला लगता है।

अतीत के झरोखे में सारनाथ
तीसरी शती ई.पू. में सम्राट अशोक ने सारनाथ की यात्रा कर यहां कई स्तूप और एक सुंदर प्रस्तर स्तंभ स्थापित कराया, धर्म लिपि अंकित है। इसी स्तंभ का सिंह शीर्ष (शेरों के तीन मुख वाली मूर्ति) तथा धर्मचक्र (अशोक चक्र) हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। चौथी शताब्दी में यहां आए चीनी यात्री फाह्यान नेचार बड़े स्तूप और पांच विहार का उल्लेख किया है। छठी शताब्दी में में हूणों के सेनापति मिहिरकुल ने यहां के प्राचीन स्मारकों को घोर क्षति पहुंचाई। फिर, सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सारनाथ पहुंचे प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्वांग ने यहां 30 बौद्ध विहार का उल्लेख किया है, जिनमें 1500 थेरावादी भिक्षु निवास करते थे। युवानच्वांग ने सारनाथ में 100 हिंदू देवालय भी देखे जाने की बात लिखी है। 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी ने यहां के स्मारकों को काफी नुकसान पहुंचाया, फिर 1194 में मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ने तो यहां की बचीखुची इमारतों तथा कलाकृतियों को लगभग समाप्त ही कर दिया। केवल दो विशाल स्तूप ही छह शतियों तक अपने स्थान पर खड़े रहे। फिर, 1794 में काशी-नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने जगतगंज नामक वाराणसी के मुहल्ले को बनवाने के लिए एक स्तूप की सामग्री काम में ले ली। पुरातन ईटों से बने इस स्तूप का व्यास 110 फुट था। कहते हैं कि यह अशोक द्वारा निर्मित धर्मराजिक नामक स्तूप था। जगतसिंह ने जब उत्खनन करवाया, तो इस विशाल स्तूप में से बलुवा पत्थर और संगमरमर के दो बर्तन मिले थे, जिनमें बुद्ध के अस्थि-अवशेष थे। उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

पुरातात्विक महत्व भी कम नहीं
पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी सारनाथ बेहद महत्वपूर्ण है। सन 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई शुरू की, फिर बौद्ध अनुयायियों और इतिहासकारों का ध्यान इधर गया। धीरे-धीरे इस स्थल की पुरानी रौनक लौटने लगी और आज यह विश्व समुदाय को आकर्षित करता है। यहां किए गए उत्खनन में 12वीं शताब्दी के विध्वंसक मंजर उजागर होते है, जब हमलावरों के भय यहां के लोग एकाएक भाग निकले थे, क्योंकि विहारों की कई कोठरियों में मिट्टी के बर्तनों में पकी दाल और चावल के अवशेष मिले थे। सन 1854 में अंग्रेज सरकार ने सारनाथ को एक नील के व्यवसायी फग्र्युसन से खरीद लिया। फिर, यहां लंका के धर्मपाल के प्रयत्नों से मूलगंधकुटी विहार नामक बौद्ध मंदिर बना। सारनाथ के अवशिष्ट प्राचीन स्मारकों में प्रसिद्ध चौखंडी स्तूप मिला, जिस पर सम्राट अकबर के समय सन 1588 का एक फारसी अभिलेख खुदा है। अभिलेख में हुमायूं के इस स्थान पर विश्राम करने का उल्लेख है। यहां प्रमुख एवं पौराणिक महत्व के रूप में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का मंदिर, धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप, वस्तु संग्रहालय, जैन मंदिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार प्रसिद्ध हैं। धमेक स्तूप आज भी सारनाथ की प्राचीनता का बोध कराता है। पुरातत्वविदों के अनुसार धमेख अथवा धर्ममुख स्तूप गुप्तकालीन है, जो भावी बुद्ध मैत्रेय के सम्मानार्थ बनवाया गया था। किंवदंती है कि यह वही स्थल है जहां मैत्रेय को गौतम बुद्ध ने उसके भावी बुद्ध बनने के विषय में भविष्यवाणी की थी।

शिल्पकला का अद्भुत समन्वय
खुदाई में धमेख स्तूप के पास अनेक खरल मिले थे जिससे लगता है कि किसी समय यहां औषधालय रहा होगा। स्तूप में से अनेक सुंदर पत्थर निकले थे। इसके अलावा गुप्तकालीन अनेक कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं मिली, जो यहां के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। गुप्तकाल में मूर्तिकला की एक अलग शैली प्रचलित थी, जो बुद्ध की मूर्तियों के आत्मिक सौंदर्य तथा शारीरिक सौष्ठव की मिश्रित भावयोजना के लिए प्रसिद्ध है। सारनाथ में एक प्राचीन शिव मंदिर तथा एक जैन मंदिर भी स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में बना था, इसमें श्रियांशदेव की प्रतिमा है। जैन किंवदंती है कि ये तीर्थकर सारनाथ से लगभग दो मील दूर स्थित सिंह पुर नामक ग्राम में तीर्थकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से कई महत्त्वपूर्ण अभिलेख भी मिले हैं, जिनमें प्रमुख काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख है। इसमें बालादित्य नरेश का उल्लेख है, जो फ्लीट के मत में वही बालादित्य है, जो मिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। यह अभिलेख शायद 7वीं शती के पूर्व का है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त नामक एक साधु द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख है। यह अभिलेख 8वीं शती का है।

आधुनिकता के साथ सृजनात्मकता
आठ साल पहले अफगानिस्तान के बामियान में तालिबान द्वारा गिराई गई भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा की याद में सारनाथ बुद्ध की दुनिया में सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित होने जा रही है। थाइलैंड की मृगदाय वन महाविहार सोसाइटी द्वारा लगवाई जा रही इस 90 फुट ऊंची प्रतिमा का निर्माण चुनार के बलुआ पत्थर से हुआ है। गंधार शैली में निर्मित यह मूर्ति खिलते कमल पर रखी दिखेगी, जो दुनिया को प्रेम और शांति का संदेश देती प्रतीत होगी। करीब दो करोड़ रुपये की लागत से निर्मित यह प्रतिमा बौद्ध उपासकों के चंदे से तैयार हुई है।

म्युजि़यम में सहेजी विरासत
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्राचीनतम संग्रहालय भी सारनाथ में है, जिसके निर्माण का फैसला 1904 में यहां की खुदाई में मिली अति प्राचीन विरासत को सहेजने के लिए किया गया। सन 1910 में तैयार यह म्युजि़यम आधे मठ (संघारम) के रूप में है, जहां पांच दीर्घाएं और दो बरामदे हैं। यहां रखी पुरावस्तुएं तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी ईसवी तक की हैं। पुरावस्तुओं के आधार पर दीर्घाओं का नामकरण है, जिसके तहत उत्तर में ‘तथागत’, फिर ‘त्रिरत्न’, मुख्य कक्ष ‘शाक्यसिंह’, इसके बाद ‘त्रिमूर्ति’ और दक्षिण में अंतिम ‘आशुतोष’ दीर्घा है। उत्तरी और दक्षिणी ओर के बरामदे को ‘वास्तुमंडन’ और ‘शिल्परत्न’ नाम दिया गया है। प्रवेश द्वारा मुख्य कक्ष से है। ‘शाक्यसिंह’ दीर्घा सर्वाधिक मूल्यवान संग्रहों को प्रदर्शित करती है, जिसके केंद्र में हमारा राष्ट्रीय चिन्ह यानी मौर्य स्तंभ का ‘सिंह स्तंभ शीर्ष’ है। यहां ‘बुद्ध’ और ‘तारा’ की विविध मुद्राओं वाली मूर्तियां, लाल बलुआ पत्थर की ‘बोधिसत्व’ की खड़ी मुद्रा वाली मूर्तियां, अष्टभुजी शॉफ्ट, छतरी भी प्रदर्शित हैं।
‘त्रिरत्न’ दीर्घा में बौद्ध देवगणों की मूर्तियां और संबद्ध वस्तुएं हैं। ‘मंजुश्री’ के रूप वाली ‘सिद्ध·विरा’ की मूर्ति, खड़ी मुद्रा में तारा, बैठी मुद्रा में बोधिसत्व ‘पद्मपाणि’, श्रावस्ती के चमत्कार को दर्शाने वाला ‘प्रस्तर-पट्ट’, ‘जम्भाला’ और ‘वसुंधरा’, ‘रामग्राम’ स्तूप, ‘कुमारदेवी’ के अभिलेख, ‘अष्ट महास्थान’ (बुद्ध के जीवन से जुड़े आठ महान स्थल) को दर्शाता ‘प्रस्तर-पट्ट’, शुंगकालीन रेलिंग आदि हैं।
‘तथागत’ दीर्घा में विविध मुद्रा में बुद्ध, वज्रसत्व, बोधित्व पद्मपाणि, विष के प्याले के साथ नीलकंठ लोकेश्वर, मैत्रेय, सारनाथ कला शैली की सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रतिमा उपदेश देते हुए बुद्ध की मूर्तियां प्रदर्शित हैं।
‘त्रिमूर्ति’ दीर्घा में बैठी मुद्रा में गोल तोंद वाले यक्ष की मूर्ति, त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) की मूर्ति, सूर्य, सरस्वती, महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियां तथा पक्षियों, जानवरों, पुरुष और महिला के सिरों की मूर्तियों जैसी कुछ धर्म-निरपेक्ष वस्तुएं और साथ ही कुछ गचकारी वाली मूर्तियां हैं।
‘आशुतोष’ दीर्घा में, विभिन्न स्वरूपों में शिव, विष्णु, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि, पार्वती, नवग्रह, भैरव जैसे ब्राह्मण देवगण और शिव द्वारा अंधकासुरवध की विशालकाय मूर्ति है। वास्तुकला संबंधी अवशेष संग्रहालय के बरामदों में हैं। ‘शांतिवादिना’ जातक कथा को दर्शाती विशाल व सुंदर ‘सोहावटी’ कलाकृति है।

तफरीह का वक्त और साधन
संग्रहालय शुक्रवार को छोड़ सप्ताह के बाकी दिन 10 से 5 बजे तक खुला रहता है। यहां 15 साल के बच्चों का प्रवेश मुफ्त है, जबकि अन्य लोगों से अंशमात्र शुल्क लिया जाता है। पूरा साल सारनाथ जाने के लिए अनुकूल हैं, हालांकि ठंड के दिनों में ऊनी वस्त्र ले जाना नहीं भूलें। यहां जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट बाबतपुर (30 किमी) और रेलवे स्टेशन वाराणसी (12 किमी) हैं, जहां से बसें, टैक्सी, ऑटो व रिक्शा तमाम साधन मौजूद हैं। यहां के स्थानीय सारनाथ रेलवे स्टेशन पर भी कुछ ट्रेनें रुकती हैं।

Saturday, December 26, 2009

बुद्धम् शरणम् गच्छामि

नैसर्गिकता से सराबोर सुरम्य टीले पर स्थित है विश्व धरोहर सांची का बौद्ध स्तूप
कहते हैं जहां समस्त ज्ञान, ध्यान व अध्यात्म की पूर्णता होती है, वहां से बुद्धत्व का प्रारंभ होता है अर्थात जिस आत्मिक सुख व शांति की तलाश में हम जीवनभर भटकते हैं, उसकी अनुभूति बुद्ध के शरणागत होने पर ही संभव है। भौतिकवादी युग के तनावभरे जीवन में आज भी समूचा विश्व भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन को बौद्धिकता, दार्शनिकता व जीवंतता का सर्वोत्तम प्रतीक मानता है, जो उन्होंने हजारों साल पहले मनुष्य को दिया था। बुद्ध ने बौद्धिकता व दर्शन के प्रसार हेतु अपने भ्रमणकाल में जिन स्थलों को अपनाया, वहीं आज बौद्धों के पवित्र तीर्थ और विश्वप्रसिद्ध धरोहर बन गए हैं। इन्हीं में से एक है मध्यप्रदेश में भोपाल से 46 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित सांची का बौद्ध स्तूप। रायसेन जिले में विदिशा से महज 10 किलोमीटर दूर 300 फुट ऊंची पहाड़ी पर बसे बौद्धों के इस प्रमुख पुण्य स्थल पर पहुंचते ही आसपास की दिव्यता का भान हो जाता है। आदिकाल में बेदिसगिरि, चेतियागिरि, काकनाय, नीचगिरि आदि नामों से प्रसिद्ध सांची की नैसर्गिकता सहज ही उस जिज्ञासा को शांत कर देती है कि मानव सभ्यता को शांति का संदेश देने के लिए ईश्वर कैसे इतना शांत और अद्भुत स्थल तलाश लेता है, जहां पहुंचकर छुद्र मन भी बुद्धत्व में लीन हो जाए। जी हां, वह सांची ही है, जहां समस्त ज्ञान व दर्शन बौना नजर आता है और लगता है कि इससे शांत, दिव्य व भव्य स्थल दुनिया में दूसरा नहीं हो सकता।
कहते हैं सम्राट अशोक ने विदिशा के एक श्रेष्ठïी की पुत्री देवी से विवाह किया था। क्रोधी स्वभाव के अशोक का चित्त कलिंग युद्ध के रक्तपात से वितृष्णा से भर गया और वह संसार से विमुख हो गए। फिर, पत्नी के कहने पर अशोक बुद्ध के शरणागत हो गए, तब जाकर कहीं उन्हें शांति मिली। देवी की इच्छा पर ही अशोक ने सांची में सुंदर व विशाल स्तूप बनवाया। अशोक ने शांत, सुंदर सांची को बौद्ध धर्म का प्रसार केंद्र बनाया। उनके पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा यहीं से बोधिवृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका गए थे, वे अपनी मां के साथ सांची में निर्मित विहार में ठहरे भी थे। पौराणिक महत्व वाले और प्रेम, शांति, विश्वास व साहस के प्रतीक सांची का महान व मूल स्तूप सम्राट अशोक ने तीसरी शती, ईसा पूर्व में बनवाया, जिसके केंद्र में अर्धगोलाकार ढांचे में भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे हैं। सबसे बड़े आकार वाले सांची के मूल स्तूप के चारों ओर भूमिस्थ वेदिका, चार तोरण द्वार, मेधि वेदिका तथा वहां तक पहुंचने का सोपान है तथा इसके हार्मिका के मध्य में यष्टिï है, जिस पर तीन छत्र हैं। इसके शिखर पर धर्म का प्रतीक विधि चक्र सजाया गया। स्तूप का व्यास 36.60 मीटर तथा ऊंचाई 16.46 मीटर है, यहां बुद्ध की चार प्रतिमाएं हैं, जो पांचवीं, छठीं शती ईस्वी की मानी गई हैं। पश्चिमी छोर पर 500 मीटर आगे दूसरा स्तूप है, जिसके गर्भगृह में प्रदक्षिणा पथ से 2.13 मीटर ऊंचाई पर बौद्ध प्राचार्यों के धातु अवशेष मिले थे। जबकि, निकट ही 15 मीटर व्यास व 8.23 मीटर ऊंचा तीसरा स्तूप है। दूसरा व तीसरा स्तूप द्वितीय शती ईसा पूर्व का माना गया है। सबसे पुराना हिस्सा बड़े स्तूप का दक्षिणी द्वार माना गया है, जिसमें बुद्ध का जन्म दिखाया गया है। यहीं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सम्राट अशोक का स्तंभ विद्यमान है, कहते हैं यह स्तंभ चुनार से गंगा, यमुना तथा वेत्रवती नदियों को नावों से पार कराकर यहां तक लाया गया था। विविध कालों की शिल्पकलाओं का प्रयोग इसे अलौकिक वैविध्यता प्रदान करता है।
मान्यता है कि प्राचीनकाल में मन्नत पूरी होने पर बौद्ध अनुयायी स्तूप बनवाते थे, सांची व आसपास के क्षेत्रों में ऐसे स्तूपों की संख्या असंख्य है। इनमें बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र, मौटगल्यायन व अन्य बौद्ध भिक्षुओं के धातु रखे होने का प्रमाण मिलता है। श्रीलंकाई बौद्ध संघ ने 1952 में यहां मंदिर बनवाया, जिसमें भगवान बुद्ध की प्रतिमा के अलावा सारिपुत्र व मौटगल्यायन की अस्थियां सहेजी गई हैं। प्रतिवर्ष नवंबर के अंतिम रविवार को इन अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है, साथ ही इन्हें स्तूपों के चारों ओर प्रदक्षिणा करके मंदिर में रख दिया जाता है। इस दौरान विश्व के कोने कोने से बौद्ध धर्मावलंबी यहां आते हैं। स्तूप के शिखर पर सम्मान का प्रतीक छत्र सजा था, पर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान शुंग काल में यहां तोडफ़ोड़ की गई थी। माना जाता है कि शुंग शासक पुष्यमित्र ने स्तूप को नुकसान पहुंचाया, जिसे बाद में उसके पुत्र अग्निमित्र ने दुबारा बनवाया। स्तूप के मूल रूप का विस्तार पाषाण शिलाओं से हुआ। शिलालेखों के अनुसार दूसरे व तीसरे स्तूप का निर्माण शुंगकाल में हुआ, जबकि बेहतरीन तोरण सातवाहन वंश ने बनवाए। तोरण की सर्वोच्च चौखट सातवाहन राजा सतकर्णी की देन है। वर्णात्मक शिल्पों से उन्नत तथा काष्ठï शैली में गढ़े तोरण बुद्ध के जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करते हैं। बुद्ध के लिए मानव शरीर तुच्छ माना गया है, इसीलिए सांची में उन्हें कहीं भी मानव आकृति में नहीं दर्शाया गया है, बल्कि कहीं घोड़ा जिस पर बैठ वे पिता का घर त्यागे, तो कहीं उनके पदचिन्ह और कहीं बोधि वृक्ष का चबूतरा (जहां सिद्धार्थ बुद्धत्व में लीन हो गए) उकेरा हुआ है।
यहां के भित्तिचित्रों में यूनानी पहनावा भी दर्शनीय है, जिनमें वस्त्र, मुद्रा व वाद्ययंत्र स्तूप को अलंकृत करते हैं। बाद में इसे बौद्ध व हिंदू धर्म की शिल्पकलाओं से संवारा गया। गुप्तकाल ने भी सांची को काफी सजाया, यहां स्तूपों से मिली अधिकांश प्रतिमाएं व मंदिर इसी काल में बनाए गए, बाद में भिक्षुओं के निवास के लिए कक्ष बनाए गए, जिनका निर्माण आठवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच माना गया है। वर्तमान ढांचे की चर्चा करें, तो ब्रिटिश जनरल टेलर ने सांची के स्तूप का अस्तित्व दर्ज किया है, पर इसका समुचित जीर्णोद्धार नहीं हो पाया। जॉन मार्शल की देखरेख में 1912 से 1919 के बीच स्तूप को वर्तमान रूप दिया गया तथा 1989 में यह विश्व धरोहर घोषित हुआ। सांची के टीले पर लगभग 50 स्मारक स्थल हैं, जिनमें स्तूप और कई मंदिर शामिल हैं। सांची ही नहीं आसपास का समूचा क्षेत्र बौद्धमय है, यहां से पांच मील दूर सोनारी के पास आठ बौद्ध स्तूप तथा सात मील दूर भोजपुर के समीप 37 बौद्ध स्मारकों का साक्ष्य है। कहते हैं सांची में पहले बौद्ध विहार भी थे तथा समीप स्थित सरोवर की सीढिय़ां भी बुद्ध के समय की मानी जाती हैं।
सर्वेश पाठक