Monday, September 14, 2009

जहां बसे हैं साक्षात विश्वनाथ

सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी

देवाधिदेव महादेव भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी, जिसे शब्दों में समाहित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा है। बनारस और वाराणसी के नाम से भी सुविख्यात यह पुण्य नगरी न केवल वेदों, पुराणों में सर्वोपरि है, बल्कि अनेकानेक पुस्तकों ने भी इसके परिसीमन की कोशिश की है। लेकिन, इस पावन, पुरातन, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक नगरी की परिधि का मूल्यांकन संभव नहीं। यहां के पहुंचते ही लगता है, मानो धर्म के साथ स्वयं का साक्षात्कार हो रहा हो। प्रमुख रेलवे स्टेशन वाराणसी कैंट से करीब छह किलोमीटर दूर स्थित है दशाश्वमेघ घाट, जहां रिक्शे द्वारा आसानी से जा सकते हैं। पावन गंगा के निर्मल जल में स्नान व सूर्योपासना के बाद जब विश्वनाथ गली होते हुए विश्वनाथ मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तो हर हर महादेव की गूंज से तन मन पूरी तरह शिवमय हो जाता है।पुराणों में स्पष्ट है कि काशी में पग पग पर तीर्थ हैं। स्कंदपुराण काशी-खण्ड के केवल दसवें अध्याय में 64 शिवलिंगों का उल्लेख है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि उसके समय में यहां करीब 100 मंदिर थे, जिनमें एक भी 100 फुट से कम ऊंचा नहीं था। मत्स्यपुराण के अनुसार यहां पांच प्रमुख तीर्थ दशाश्वमेघ, लोलार्क कुंड, आदि केशव (केशव), बिन्दुमाधव और मणिकर्णिका हैं। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर में विराजे देवाधिदेव की इस पुण्य नगरी के संबंध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता, क्योंकि भगवान इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिïकाल में इसे नीचे उतार देते हैं। आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलाई जाती है, जहां भगवान विष्णु ने सृष्टि रचना के लिए तप कर आशुतोष को प्रसन्न किया, जिसके बाद उनके नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने सर्वस्व रचा। विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। यहां तक कि सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां गंगास्नान कर विश्वनाथ दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है और स्वयं महादेव कानों में तारक-मंत्र का उपदेश देकर प्राणी को संसार के आवागमन से मुक्त करते हैं। ऐसी भी धारणा है कि पृथ्वी का निर्माण हुआ, तो प्रकाश की पहली किरण काशी पर पड़ी। तभी से काशी जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आध्यात्म व संस्कृति का केंद्र है।एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।

यहां गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2।30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11।30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8।30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10।30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है। महाशिवरात्रि पर यहां के वैजनत्था मंदिर पर भव्य मेला भी लगता है।विश्वनाथ मंदिर के सामने ही मां अन्नपूर्णा का पवित्र मंदिर है, जिसे 1725 में मराठा सरदार पेशवा बाजीराव ने बनवाया था। मान्यता है कि यहां का प्रसाद अनाज भंडार में डालने से वह कभी खाली नहीं होता। यहां चांदी के सिंहासन पर विराजमान मां अन्नपूर्णा की कांस्य प्रतिमा का दर्शन रोजाना होता है। लेकिन, धनतेरस से दीपावली के तीन दिनों तक भक्तों को माता की स्वर्ण प्रतिमा का दर्शन मिलता है, जिसमें मां अन्नपूर्णा भगवान शिव को अन्नदान कर रही होती हैं। उन दिनों में भक्तों को प्रसाद में पैसा (सिक्का) व धान (अनाज) दिया जाता है, पैसे को धनकोश और अनाज को अन्नभंडार में रखने से कभी अन्न व धन की कमी नहीं होती। यहां से महज डेढ़ किलोमीटर दूर चौखंभा पर कालभैरव मंदिर है, जिसे सरदार विंचूरकर ने 19वीं सदी के आरंभ में बनवाया था। कालभैरव को काशी का कोतवाल माना जाता है, जो भूतों से नगर की रक्षा करते हैं। इनके हाथ में लाठी व बगल में श्वान (कुत्ता) रहता है। जैसे भगवान शिव का दिन सोमवार माना जाता है, वैसे ही कालभैरव का दिन रविवार है। काशी के मुख्य तीर्थस्थलों में तिलभांडेश्वर, संकठामाता, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, बटुक भैरव, शनिदेव और नौ देवियों के अलग-अलग मंदिर हैं। साथ ही नगर के आसपास के क्षेत्रों में रामेश्वर तीर्थ और त्रिलोचन महादेव भी मौजूद हैं।इसके अलावा यहां देश की पहली व एकमात्र भारतमाता मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित है, जिसे शिवप्रसाद गुप्त ने बनवाया था। यहां वैज्ञानिक रूप से शुद्ध पत्थरों से निर्मित अविभाजित भारत का मानचित्र है। काशी से करीब दस किलोमीटर दूर प्रसिद्ध बौद्ध धर्मस्थल सारनाथ है, जहां करीब ढाई हजार वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पहला उपदेश दिया। यहां पुराकुषाण काल का शिलालेख भी मिला है, जो धर्मोपदेश का अधूरा संग्रह है। भारतीय मुद्रा पर अंकित राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह भी यहीं से लिया गया है। प्राचीन सभ्यता का प्रतीक सारनाथ राष्ट्रीय धरोहर भी है, जहां के संग्रहालय में बौद्ध स्तूप सुरक्षित है। सारनाथ के रास्ते में ही सीता रसोई भी है, जहां कभी माता सीता ने अपने नाथ के लिए भोजन पकाया था।

मंदिरों के अलावा गंगाघाटों व गलियों के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां घाटों की संख्या सौ से अधिक है और प्रत्येक घाट से जुड़ी एक धार्मिक मान्यता व ऐतिहासिक गाथा प्रचलित है। इन घाटों पर जन्म से लेकर मृत्यु तक के धार्मिक संस्कार किए जाते हैं। यहां रोजाना मां गंगा की मनमोहक आरती होती है। गंगा महोत्सव व देव दीवाली पर गंगाघाटों का नजारा किसी स्वप्नलोक से कम नहीं होता। यहां के मणिकर्णिका घाट को मुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। पांचगंगा में पांच नदियों की धाराएं मिलने की कल्पना की गई है। काशी की पांचक्रोशी का विस्तार 50 मील में है। इस मार्ग पर सैकड़ों तीर्थ हैं, अत: इस नगरी में तीर्थों की संख्या अगणित है। यहां के कई मंदिरों में वास्तु एवं शिल्पकला का अनूठा मेल देखा जा सकता है।

नगरी काशी में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना 1916 में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने की थी। विश्वविद्यालय परिसर में ही नया विश्वनाथ मंदिर है, जो उस मंदिर का प्रतिरूप माना जाता है, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था। दो तल वाले इस मंदिर की दीवारों पर धर्म व लोकजीवन से संबंधित चित्र बने हैं, जिनके परिचय संस्कृत व हिन्दी में अंकित हैं और जो बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। विश्वविद्यालय परिसर में ही प्रसिद्ध संग्रहालय 'भारत कला भवन मौजूद है, जिसमें प्राचीन काल से लेकर मुगलों, अंग्रेजों व स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी विभिन्न सामग्री मौजूद हैं। यहां के अन्य विश्वविद्यालयों में काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, तिब्बती शास्त्र विश्वविद्यालय व जामिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी प्रमुख है।

यहांरामनगर का किला भी देखने योग्य है, जो वाराणसी से 14 किलोमीटर दूर है, यहां काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पास से गंगा नदी पारकर भी जाया जा सकता है। 18वीं शताब्दी से पहले जब साम्राज्यों का विभाजन नहीं हुआ था, तो वाराणसी मुगलों का प्रमुख प्रांत था। ब्रिटिश काल में 1910 में बनारस संपूर्ण राज्य बना, जिसकी राजधानी रामनगर थी। 18वीं शताब्दी से यह किला काशी नरेश का आवास है, जो बनारस के राजा का इतिहास बताता है। किला सुबह 9 से एक बजे और 2 से शाम 5 बजे तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है। रामनगर की रामलीला विश्वप्रसिद्ध है। बनारस में हर पर्व पूरी संजीदगी व जिंदादिली के साथ मनाया जाता है। यहां महाशिवरात्रि से लेकर, श्रावण व पुरुषोत्तम मास पर्व, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पर्व तक और चेतगंज की नक्कटैया व नाटी इमली के भरतमिलाप से लेकर दशहरा, दीवाली, मकर संक्रांति, ईद व होली मनाने का अलग ही अंदाज है। बनारसी भाषा का अल्हड़पन और यहां का अलमस्त जीवन सहज ही आगंतुकों के मन को छू जाता है। बनारस का पान, साड़ी व कालीन भी विश्वप्रसिद्ध है।
यूं हुई बाबा विश्वनाथ की काशी वापसी
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि देवी पार्वती को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का मन बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी और वे यहां रहने लगे, जिससे अन्य देवी देवता भी काशी आने लगे। इससे राजा दिवोदास को नगर पर अपना अधिपत्य खोने से काफी दु:ख हुआ और उन्होंने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जिसके वरदान स्वरूप शिवजी को काशी छोडऩे पर विवश होना पड़ा। लेकिन, महादेव का काशीमोह भंग नहीं हुआ, उन्हें उनकी प्रिय नगरी में बसाने के लिए 64 योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ और ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो शिवलिंग की स्थापना कर शिवलोक चले गए। ब्रह्माजी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट भेजकर उनका स्वागत किया और महादेव काशी वापस आ गए और यहीं बस गए।
सर्वेश पाठक

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