Sunday, September 15, 2013

बुद्ध की धरती कौशांबी

‘मनन’ को समझाते हुए बुद्ध ने कहा कि स्वयं का प्रेक्षक, साक्षी एवं द्रष्टा होने से सजगता उपजेगी और सत्य प्रतिबिंबित होगा। अत: सजगता लाओ, जिसके प्रकाश में अंधकार विलीन हो जाएगा, फिर क्रोध, आवेग तथा आवेश स्वत: नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने समझाया कि वास्तविक समस्या हमारे भीतर है, जहां प्रकाश की कमी है, अत: अपने भीतर उस प्रकाश को फैलाने की आवश्यकता है। आत्मिक बोध के इस प्रकाश से बुद्ध ने विश्व को आलोकित किया, अपने भ्रमणशील जीवन में उन्होंने तमाम स्थलों पर प्रवास किया। बुद्ध से जुड़ी इस कड़ी में है कौशांबी की सार्थकता को समेकित करने की कोशिश :     
जीवन के 29 सालों तक बुद्ध सांसारिक थे। उन्हें सारे सुख प्राप्त थे, पर उन्हें अधिक चाहिए था। कुछ गहन, जो बाहरी दुनिया में उपलब्ध नहीं था। वे समझ गए कि इसके लिए भीतर छलांग लगानी होगी, फिर उन्होंने समस्त सुख त्याग भीतरी सत्य की तलाश शुरू की। कुछ वर्षों बाद उन्हें वह मिल गया, जिससे संसार विमुख था और फिर वह सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। तथागत लगातार भ्रमणशील रहे और सत्य को संसार के सम्मुख रखना शुरू किया। उन्होंने कहा कि प्रेक्षक, साक्षी, द्रष्टा होना सच्चाई की ओर ले जाने वाला पहला सोपान है। अत: कोई भी कार्य करते वक्त ध्यान हो कि हम प्रेक्षक हैं, भोजन के समय ध्यान रहे कि शरीर आहार ले रहा है और हम साक्षी हैं, ऐसे ही स्वप्नकाल में भी हम सिर्फ द्रष्टा बन सकते हैं, फिर सपने लुप्त हो जाएंगे और एक नई चेतना का उदय होगा।
बौद्ध भूमि के रूप में प्रसिद्ध कौशांबी पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक जिला है, जिसका मुख्यालय मंझनपुर है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है, जहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शीतला मंदिर, दुर्गा देवी मंदिर, प्रभाषगिरी, राम मंदिर आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम से 63 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कौशांबी को पहले कौशाम के नाम से जाना जाता था। यह बौद्ध व जैनों का पुराना केंद्र है। पहले यह जगह वत्स महाजनपद के राजा उदयन की राजधानी थी। माना जाता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध अपने छठे व नौवें वर्ष यहां भ्रमण के लिए आए थे।
बौद्ध काल में षोडश महाजनपदों में से एक कौशांबी को धनिकों की नगरी कहा जाता था। इतिहासकारों के अनुसार प्रसिद्ध धन्नासेठ कौशांबी के ही निवासी थे। तब यमुना नदी से ही पूरा व्यापार होता था। बुद्ध श्रावस्ती से कई बार चतुर्मास गुजारने के लिए कौशांबी आए। घोषिता राम एवं कुकक्टा राम नाम के दो व्यापारियों ने उनके ठहरने के लिए यहां विहार बनवाया था, जहां आज भी बुद्ध से जुड़ी यादें संरक्षित हैं। कहते हैं कि कलिंग युद्ध के बाद जब अशोक को हिंसा से नफरत हो गई, तो उसने भी कौशांबी की शरण ली और इसे अपना ठिकाना बनाते हुए यहीं से अहिंसा का संदेश प्रसारित करना शुरू किया। सम्राट अशोक ने कौशांबी में अशोक स्तंभ का भी निर्माण कराया। उत्खनन में मिले प्रमाण भी साबित करते हैं कि कौशांबी एक समृद्ध और विकसित नगरी थी, सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद अगर हिंदुस्तान में कहीं नगरीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं, तो वह कौशांबी भी है।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व कौशांबी प्रवास के दौरान बुद्ध ज्यादातर परलेयक वन में ही रहते थे। कहते हैं इस वन का राजा परलेयक हाथी बुद्ध के प्रभाव से उनके शरणागत हो गया था। परलेयक वन में देवश्रव्य कुंड है, जिसमें बुद्ध स्नान करते थे और स्नान के बाद परलेयक हाथी अपने एक बंदर मित्र के साथ मिलकर उन्हें खाने के लिए फल देता था। बुद्ध जब कौशांबी से जाने लगे, तो परलेयक काफी दूर तक उनके साथ गया, उनके लौटने को कहने पर वह वहीं रुक गया और विछोह में प्राण त्याग दिए। तत्कालीन राजा उदयन ने उसी स्थल पर परलेयक हाथी का स्मारक बनवा दिया। महराज उदयन की चर्चा के बगैर कौशांबी का इतिहास अधूरा है। बौद्ध काल के बाद उदयन का साम्राज्य फैला और गढ़वा का किला उनके वैभव की गवाही है। वैदिक काल में सशक्त पहचान बनाने वाली कौशांबी का मध्यकाल भी गौरवशाली रहा है। कड़ा का इतिहास मध्यकाल के सुनहरे पन्नों में दर्ज है, जहां की धरती को विद्रोह के लिए सबसे अनुकूल माना जाता था। 
हालांकि, परलेयक वन की जानकारी कौशांबी वासियों को नहीं थी, वे इसे किस्से कहानियों का हिस्सा मानते थे, लेकिन एक शोधकर्ता ने जब इसकी खोज की, तो सभी का ध्यान इस ओर आया। यह वन यमुना की तलहटी में प्रभाषगिरि के आस-पास फैला हुआ था। यहीं पर देवश्रव्य कुंड व परलेयक हाथी के स्मारक का भी पता चला, जिनका जिक्र बौद्ध धर्म के पिटक ग्रंथों में है। प्रभाषगिरि पर्वत से करीब 8 किमी दूर चंपहा बाजार के पास गांव की आबादी से दूर परलेयक हाथी का स्मारक मिला, जिसे आजकल हाथी थान के नाम से जाना जाता है।
पहुंचने के साधन : कौशांबी पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा वाराणसी है। कौशांबी रेल मार्ग के जरिए भी भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा है। यह जगह सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख स्थानों से जुड़ी हुई है। कुल मिलाकर बुद्ध को जानने समझने की आतुरता कम करनी हो, तो उनसे जुड़े स्थलों का भ्रमण सहायक होगा। इसके लिए मन को स्थिर कर छोटी-बड़ी जगह का परहेज किए बगैर क्रम से सभी स्थ्लों तक जाना होगा। इन सबमें सबसे ज्यादा जरूरी है बुद्ध को रूह से महसूस करना, यदि यह संभव नहीं, तो ये स्थल महज तफरीह के लिए हैं।
-सर्वेश पाठक