Monday, October 12, 2009

'काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का

आकाशेतारकंलिङ्गं, पाताले हाटकेश्वरम्।
भूलोकेचमहाकालं, लिंङ्गंत्रयनमोह्यस्तुते॥
अर्थात आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर तथा भूलोक के स्वामी महाकाल हैं। इन तीनों को स्मरण कर नमन किया जाए, तो देवाधिदेव महादेव की पूजा संपन्न मानी जाती है। यूं तो धर्म में आस्था रखने वाले श्रद्धालु महाकालेश्वर की त्रिलोक महिमा से भली भांति परिचित होंगे, किंतु भगवान महाकाल व पुण्यसलिला क्षिप्रा को धारण करने वाली मोक्षदायिनी उज्जयिनी प्रवास का मोह न रखने वाले विरले ही होंगे। भोपाल से सड़क मार्ग से जब हमलोग उज्जैन पहुंचे, तो दिन ढल रहा था, लेकिन इस पुण्य नगरी में प्रवेश करते ही घंटियों-घडिय़ालों की आवाज तथा 'बम बम भोले व 'जय महाकाल की गूंज ने तन मन को ऐसा स्पंदित किया, मानो आस्था व भक्ति का सूरज अभी अभी उदय हुआ हो।
महाकालेश्वर के दर्शन को मन की व्याकुलता दब नहीं रही थी, अतएव हमलोग सीधे जा पहुंचे महाकाल मंदिर। शाम की आरती का वक्त था और काल नियंत्रक महाकाल के भव्य शृंगार की अलौकिक छटा देखते ही बनती थी। देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर संसार का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है, जो स्वयंभू होने के साथ साथ तांत्रिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कहते हैं महाकाल के समक्ष महामृत्युंजय का जप करने से द्वार पर आई मृत्यु उल्टे पांव लौट जाती है, रोगी स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाता है। महाकाल की आराधना से अकाल मृत्यु का योग नष्ट हो जाता है और मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति भी नया जीवन पाता है। मालवा में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'अकाल मृत्यु वो मरे, जो काम करे चण्डाल का। काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का..!
शिव पुराण में बताया गया है कि भूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी वासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए भगवान शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न हो भगवान शिव ज्योति रूप में प्रकट हुए तथा दैत्य का संहार कर लोगों की रक्षा की। इसके बाद भक्तों के आग्रह पर भोलेनाथ लिंग रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए, इसीलिए इन्हें महाकाल कहा जाता है, जो काल से भक्तों की रक्षा करते हैं। यह दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहां भस्म द्वारा महाकाल की अद्भुत आरती की जाती है। इस दौरान वैदिक मंत्रों व स्तोत्र पाठ, वाद्ययंत्रों, शंख डमरू व घंटी घडिय़ालों द्वारा की गई शिव स्तुति अंत:चेतना को जगा देती है। भस्म आरती के समय साधारण वस्त्रों में गर्भगृह प्रवेश वर्जित है, इस दौरान पुरुषों को रेशमी धोती तथा महिलाओं को साड़ी पहनना जरूरी है। अन्य परिधान में भक्त बाहर हाल से महाकाल की भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं। प्रचलित कथा के मुताबिक पहले यहां मुर्दे की चिता भस्म से भोलेनाथ का शृंगार किया जाता था। एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने से महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया और बालक की चिता भस्म से भूतभावन का शृंगार कर दिया, तब से यहां मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर से बने कंडों की भस्म से भगवान शिव का शृंगार किया जाता है। उज्जयिनी में श्रावण मास का खासा महत्व है। सावन के हर सोमवार को महाकाल प्रजा का हाल जानने नगर भ्रमण पर निकलते हैं। इस दौरान भगवान के मुखौटे को पालकी में रख प्रमुख मार्गों पर भ्रमण कराया जाता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु अपने प्रभु के दर्शन करते हैं। सावन के अंतिम सोमवार को महाकाल की शाही सवारी निकलती है और प्रजा पालक महाकाल के जयघोष से पूरा नगर गुंजायमान हो जाता है। युगों-युगों से यहां बसे महाकालेश्वर का उल्लेख पुराणों, महाभारत के अलावा कालीदास तथा तुलसीदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में भी किया गया है। माना जाता है कि मंदिरों की नगरी उज्जैन में करीब चार लाख तीर्थस्थल हैं। प्रामाणिक तौर पर इस पुण्य नगरी का इतिहास 600 साल वर्ष ईसा पूर्व का है, जिसका शासन सम्राट चंद्रप्रद्योत के हाथों में था। प्रद्योत वंश का प्रभुत्व यहां ईसा की तीसरी शताब्दी तक था। इसके बाद यहां मौर्य साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसने अशोक जैसे महान सम्राट दिए, फिर हर्षवद्र्धन और बाद में परमार, चौहान व तोमर शासकों का शासन रहा। वर्ष 1235 में इल्तुत्मिश ने नगर को काफी नुकसान पहुंचाया, जिसका असर महाकाल की प्राचीन मंदिर पर भी पड़ा। यवनों के शासनकाल (1107-1728) में इस धार्मिक नगरी की 4500 वर्षों से ज्यादा पुरानी आध्यात्मिक व पौराणिक परंपराओं की अत्यधिक क्षति हुई। लेकिन, 1728 से यहां मराठों का अधिपत्य हुआ और 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी रही। इसी दौरान महाकालेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण, ज्योतिर्लिंग की पुनप्र्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई। करीब 250 साल पहले सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया। एक परकोटे के भीतर तीन तलों में विस्तारित विश्व प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए सीढ़ीदार रास्ता है, जिसके ठीक ऊपर के कक्ष में ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा स्थापित है, जिनके दर्शन नागपंचमी को ही संभव है।
१०.७७ गुना १०.७७ वर्गमीटर में फैले २८.71 मीटर ऊंचे इस भव्य मंदिर से लगा कोटितीर्थ नामक जलस्रोत है। कहते हैं कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया, तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिंकवा दिया था। बाद में इसकी पुनप्र्रतिष्ठा कराई गई। 1968 के सिंहस्थ महापर्व पर इसके मुख्य द्वार को संवारा गया और निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण हुआ, जबकि 1980 के सिंहस्थ से पूर्व बिड़ला उद्योग समूह ने यहां विशाल मंडप बनवाया, ताकि भीड़ में श्रद्धालुओं को कम परेशानी हो। हाल ही में मंदिर के 118 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई। मंदिर की व्यवस्था के लिए यहां प्रशासनिक कमेटी गठित है, जो यहां की देखभाल सुचारू रूप से करती है।
महाकालेश्वर के अलावा भी उज्जयिनी में कई तीर्थ व पौराणिक महत्व के विश्वप्रसिद्ध स्थल हैं। मालवा की संस्कृति से लबरेज यहां के सहृदय व सरल लोग सहज ही आगंतुकों को अपना बना लेते हैं। सात प्रमुख पौराणिक नगरियों में शुमार उज्जैन के श्री बड़े गणेश मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, हरसिद्धि, गोपाल मंदिर, गढ़कालिका देवी, भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर, दुर्गादास की छत्री, कालभैरव आदि प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। इनमें प्रत्येक के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं, जो आज भी घोर आस्था का प्रतीक है। इसके अलावा अवंतिका, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती, उज्जयिनी आदि विविध नामों से अभिहित उज्जैन के अनेक ऐतिहासिक परिवर्तनों की साक्षी क्षिप्रा नदी का यहां के प्रत्येक तीर्थ से गहना नाता है। कवि, संत, श्रद्धालु, पर्यटक, कलाकार हर किसी को लुभाने वाली क्षिप्रा के मनोरम तट सहज ही आगंतुकों का मन मोह लेते हैं। यहां लगने वाला सिंहस्थ 12 वर्षों के अंतराल पर आता है, जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। इसी दौरान यहां विश्व भर से श्रद्धालु जुटते हैं।
सर्वेश पाठक

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