Thursday, July 18, 2013

बोधगया: जहां बुद्धत्व में लीन हुए बुद्ध

इन दिनों बिहार को बुरी नजर लग गई है। कुछ दिन पहले बोधगया में सीरियल ब्लास्ट हुए, तो हाल ही में बच्चों की थाली में जहर परोसा गया। दोनों ही घटनाओं में कई मासूमों ने अपनी जान गंवाई। सरकार की छीछालेदर हो रही है, जो उचित भी है। अगर कोई सरकार अपनी जनता का जीवन और उसकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती, तो उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है। इन घटनाओं ने कुछ साल पहले एनबीटी में प्रकाशित मेरे इस लेख की ओर मेरा ध्यान खींच ही लिया, आखिर बुद्ध की धरती पर यह क्या हो रहा है। करीब 15 साल हो गए गयाजी गए हुए, तब न तो बिहार ऐसा था, न बोधगया, अब बिहार में विकास की बयार तो बही, पर साथ ही आतंक और भ्रष्टाचार भी विकसित हुए। चलिए, कुछ सकारात्मक सोचते हैं और आपको पढ़ाते हैं बुद्ध की नगरी से जुड़ा यह आलेख:

धम्मम् शरणम् गच्छामि

ध्यान को समझाते हुए बुद्ध ने कहा, ‘श्वसन से प्रारंभ करो, क्योंकि यह सबसे सरल है, जो स्वयं होता है। इस पर केंद्रित होओ, फिर प्रतिबिंब की आवश्यकता नहीं और तुम अनंत में चले जाओगे।’ ये वहीं सिद्धार्थ थे, जो सत्य तलाशते बुद्ध बने, फिर विश्वव्यापी हो गए। उनकी तृष्णा उरुवेला में शांत हुई, जो आज बोध गया है।

बुद्ध दो बातें बताए: ‘अपनी श्वासों को देखो, अथवा अपनी चाल को! वे स्वयं दोनों काम करते थे। कुछ घंटे बोधिवृक्ष के नीचे बैठते और अपनी श्वासों को देखते, जब पैरों में थकान महसूस होती और वे जकड़ जाते, तब वे एक घंटे टहलते, इस दौरान वे अपनी चाल देखते- एक पैर आगे बढ़ता, फिर दूसरा और फिर पहला पैर... तब वे लौट आते। यदि आप बोधगया गए हों, जहां सिद्धार्थ ने बुद्धत्व पाया, तो वहां बोधिवृक्ष के समीप छोटा रास्ता दिखेगा, जिस पर बुद्ध चला करते थे। बुद्धिज्म में ध्यान की यह चमत्कारी प्रक्रिया है, ‘यदि हम कोई वस्तु मौन होकर देखते हैं, तो उसमें विलीन हो जाते हैं, वहीं अनंत है।’ विष्णु का नौवां अवतार मानकर हिन्दू भी बुद्ध में गहरी आस्था रखते हैं।

इतिहास के आइने में बोध गया

करीब 528 ई.पू. वैशाख (अप्रैल-मई) में सिद्धार्थ ने सत्य की खोज में घर त्यागा। फिर, वे निरंजना नदी के किनारे उरुबिल्व (उरुवेला) गांव पहुंचकर पीपल के पेड़ के नीचे साधना में लीन हो गए। एक दिन स्थानीय कन्या सुजाता ध्यानमग्न सिद्धार्थ के लिए एक कटोरा खीर तथा शहद ले आई, जिसे ग्रहणकर वे फिर साधना में खो गए। करीब तीन दिन व रात तप कर वैशाख पूर्णिमा को उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। फिर, उन्होंने वहां 7 हफ्ते अलग-अलग स्थलों पर ध्यान करते हुए बिताया। कालांतर में यह गांव सम्बोधि, वैजरसना, महाबोधि नामों तथा निरंजना नदी फल्गु के रूप में प्रसिद्ध हुई, हालांकि ‘बोधगया’ का उल्लेख 18वीं शताब्दी से मिलता है। पीपल का वह वृक्ष बोधिवृक्ष के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिससे जन्मा एक पौधा सम्राट अशोक ने पुत्री संघमित्रा तथा पुत्र महेंद्र के हाथों श्रीलंका भेजा था। मूल वृक्ष नष्ट होने पर श्रीलंका के अनुराधापुर से पौधा लाकर यहां फिर लगाया गया। कहते हैं, वर्तमान बोधिवृक्ष मूल वृक्ष की पांचवीं पीढ़ी है, जिसकी शाखाओं में धर्मावलंबी वस्त्र बांधते हैं। समीप ही सुजाता नामक तालाब है। मान्यता है कि है, इसी तालाब में स्नान कर सुजाता ने बुद्ध को खीर खिलाई थी। बुद्ध से जुड़े चार पवित्र स्थलों में शुमार महाबोधि मंदिर को सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनवाया। पांचवीं-छठीं शताब्दी में निर्मित वर्तमान मंदिर पूर्णरूप से ईंटों से बने शुरुआती मंदिरों का साक्षी है, जिसे गुप्त काल का मानते हैं। यहां बुद्ध से जुड़ी घटनाओं के अभिलेख हैं, खासकर अशोक द्वारा बनवाए मंदिर, कटघरे व स्मारक शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण हैं।

बुद्ध ने किया बुद्ध का निर्माण

मान्यता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध प्रतिमा का संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहते हैं, मंदिर निर्माण के वक्त इसमें मूर्ति स्थापना का निर्णय हुआ, लेकिन ऐसा शिल्पकार नहीं मिला, जो बुद्ध को समझ उनकी प्रतिमा बना सके। सहसा एक दिन एक तेजस्वी आया और मूर्ति निर्माण की इच्छा जताई, लेकिन कुछ शर्तें रखीं, जिसमें पत्थर का स्तंभ तथा एक लैम्प दिया जाना शामिल था। उसने छह महीने का समय मांगा, जिससे पहले मंदिर के पट खोलना वर्जित था। शर्तें मानी गईं, लेकिन व्यग्र ग्रामीणों ने तय अवधि से चार दिन पहले मंदिर का दरवाजा खोल दिया। भीतर अतिसुंदर प्रतिमा थी, जिसकी हृदयस्थली छोड़ प्रत्येक अंग मोहक था। हृदयस्थली पूर्ण रूप से तराशी नहीं थी। बाद में एक बौद्ध भिक्षु वहां रहने लगा, एक भोर बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि मूर्ति उन्होंने स्वयं बनाई है। यह प्रतिमा बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है।

महाबोधि मंदिर में समाधिस्थ बुद्ध

बुद्ध की यथार्थता को बखानते महाबोधि मंदिर में विश्वभर से हर धर्म के लोग आध्यात्मिक शांति तलाशने आते हैं। करीब 60 वर्गफुट चौड़े तथा 180 फुट ऊंचे पिरामिड पर स्थित दो मंजिली मंदिर में सुनहरे गिलटवाली बुद्ध प्रतिमा स्थापित है। शिलालेखों के अनुसार सन 1105 में ब्रह्मदेशीय बौद्धों ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, तभी से यहां दिव्य ज्ञान प्राप्त बुद्ध की मूर्ति है। ऊपरी मंजिल पर उपासना गृह है। पूर्व में दक्षिण भारतीय शैली का तोरण है, जिसकी दीवारों पर विविध मुद्राओं में बुद्ध, कमल, पक्षी और अन्य प्राणियों सहित जातक कथाएं अंकित हैं। चारों कोनों में चार शिखर हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में भी इसकी चर्चा है। कुछ इतिहासकार इसे पहली शताब्दी से जोड़ते हैं। हालांकि, 1877 में अंग्रेजों ने मंदिर पर ध्यान दिया, 1880 में जनरल ऐलेक्जेंडर कंनिंगहोम ने इसका जीर्णोद्धार कराया, फिर बोधगया की रौनक लौटी। मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है, जिसमें बुद्ध की विशाल मूर्ति पदमासन की मुद्रा में है। कहते हैं, यह मूर्ति वहीं स्थापित है, जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग है, जो यहां प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। परिसर में वे सात स्थान भी चिन्हित हैं, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह बिताए थे।

भव्य एवं शांत बौद्ध परिसर

मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की सात फुट ऊंची वज्रासन मुद्रा वाली प्रतिमा है। चारों ओर विविध रंगों के पताके मूर्ति का आकर्षण बढ़ाते हैं। कहते हैं सम्राट अशोक ने इसे पृथ्वी का नाभिकेंद्र बताते हुए यहां हीराजडि़त सिहांसन स्थापित कराया। प्रतिमा के आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के पदचिन्ह हैं, जिन्हें धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक मानते हैं। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़े होकर बिताया था। यहां बुद्ध की इसी अवस्था वाली मूर्ति है, जिसे अनिमेश लोचन कहते हैं। उत्तरी भाग चंकामाना नाम से प्रसिद्ध है, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्ताह बिताया था। यहां काले पत्थर से बना कमल का फूल है, जो बुद्ध का प्रतीक है। उत्तर पश्चिम में छतविहीन भग्नावशेष है, जिसे रत्नाधारा कहते हैं। यहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह बिताया था। दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का प्रयोग विभिन्न देशों ने यहां लगे अपने पताके में किया है।

बुद्धम् शरणम् गच्छामि

कहते हैं, बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से कुछ दूर अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवां तथा मंदिर के दायीं ओर मूचालिंडा झील के समीप छठा सप्ताह बिताया था। चारों ओर से वृक्षों से घिरी इस झील के बीचो-बीच बुद्ध प्रतिमा है, जिसकी रक्षा विशाल सांप कर रहा है। दंतकथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने लीन थे कि उन्हें आंधी का ध्यान भी नहीं रहा, फिर मूसलाधार बारिश होने पर सर्पराज मूचालिंडा आए उनकी रक्षा की। निरंजना नदी के किनारे दो किलोमीटर आगे झाडिय़ों में एक स्तूप है, जिसे गोपबाला सुजाता का घर मानते हैं। मंदिर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सातवां सप्ताह बिताया था। यहीं पर बर्मा के दो व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय प्रार्थना के रुप में बुद्धम् शरणम् गच्छामि (मैं अपने को बुद्ध को सौंपता हूं) का उच्चारण किया। तभी से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।

धम्मम् शरणम् गच्छामि

मंदिर के उत्तर पश्चिम में 1938 में तिब्बत के करमापा संप्रदाय ने दो विहार बनवाए। बेहतरीन सजावट वाली दो मंजिली इस मंदिर में बुद्ध प्रतिमा के अलावा 200 कुंतल का पीतल का धर्मचक्र है। मानते हैं कि इसे तीन बार बायें से दाहिने घुमाने से पाप कम होते हैं। यहां चीनी बौद्ध मंदिर भी है, जिसकी मूर्ति चीन से आई है। इसकी बनावट इंडो-चीनी शैली की है। इसके अलावा यहां पर अन्य देशों के विहार भी हैं, जिनमें थाई, भूटान, तिब्बती, नेपाल और जापान प्रमुख हैं, जिनकी भव्य स्थापत्य शैली देखते ही बनती है। अंत में बुद्ध की एक और गगनचुंबी प्रतिमा है, जिसका अनावरण 1989 में दलाई लामा ने किया था। विश्वशांति के प्रतीक के रुप में बोधगया में मैत्रेय बौद्ध की मूर्ति भी है।

यात्रा का समय

यहां पहुंचना बेहद आसान है, सड़क मार्ग से गया, पटना, नालंदा, राजगीर और राज्य के अन्य स्थानों से बोध गया तक बसें जाती हैं। जबकि, रेल मार्ग से बोध गया के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन गया जंक्शन है, जो यहां से 12 किलोमीटर दूर है। अनुकूल समय अक्टूबर से मार्च है। मौसम की तपिश के कारण गर्मी छोड़ पूरे साल बोध गया जा सकते हैं। मई में बुद्ध पूर्णिमा पर यहां विश्वभर से अनुयायी जुटते हैं।

सर्वेश पाठक