Thursday, October 15, 2009

जय काली कलकत्ते वाली

यूं तो जगतजननी देवी भगवती का प्रत्येक शक्तिपीठ अपनी विलक्षणता के लिए विश्वप्रसिद्ध है, पर कोलकाता के कालीघाट की अलौकिकता का उदाहरण शायद ही हो। धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वैचारिक, साहित्यिक, आदि विविधताओं से सजे इस शहर की उत्पत्ति व नामकरण के वक्त से ही देवी भगवती शक्तिस्वरूपा मां काली का आशीर्वाद प्राप्त है। मां भवानी के उपासकों की आस्था एवं समर्पण से लबरेज यहां के जनजीवन पर सहज ही माता काली की छत्रछाया महसूस की जा सकती है। उत्सवों के लिए प्रख्यात इस शहर में दीपोत्सव में दीपदान के साथ-साथ विश्वप्रसिद्ध काली पूजा की विशेष धूम रहती है। काली पूजा पर जहां समूचा कोलकाता निखर उठता है, वहीं कालीघाट की आभा देखते ही बनती है। यहां पहुंचने के लिए सबसे आसान साधन मेट्रो है, इसके लिए कालीघाट स्टेशन उतरना पड़ता है। मंदिर की ओर बढऩे पर माला फूल प्रसाद आदि की दुकानें प्रवेश पथ को संकरा बना देती हैं।
कालीघाट 51 शक्तिपीठों में से एक है। सती के अंग जिन स्थानों पर गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी सती ने पिता द्वारा पति देवाधिदेव शिव के अपमान के बाद आत्मसम्मान के लिए खुद को स्वाहा कर लिया। भगवान शिव को वहां पहुंचने में विलंब हो गया, तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का जला शरीर उठाकर तांडव शुरू कर दिया। सृष्टिï विनाश के भय से घबराए देवताओं ने श्रीहरि विष्णु से देवाधिदेव को मनाने की विनती की। श्रीहरि ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, इस पर शिव ने नृत्य रोक दिया। कहते हैं, सती के दाहिने पैर की अंगुलियां यहां 'हुगली नाम से प्रसिद्ध पावन 'गंगा नदी के किनारे गिरीं, जो वर्तमान शहर का दक्षिणी भाग है। इस शक्ति 'पीठमाला को कालीघाट के रूप में पहचान मिली। इस पूरे क्षेत्र को कालीकाता नाम मिला, जो आगे चलकर कोलकाता कहलाया।
इस प्रकार काली और कोलकाता का रिश्ता सदियों पुराना है। 15वीं सदी से 18वीं सदी तक की बांग्ला किताबों और सरकारी दस्तावेजों में काली मंदिर का जिक्र है। 1742 में अंग्रेेजों द्वारा बनवाए गए गाइड-मैप में कालीघाट मार्ग दर्शाया गया है। वर्तमान मंदिर करीब 200 वर्ष पुराना है। किंवदंती के मुताबिक 24 परगना जिले के बरीशा गांव के ब्राह्मण जमींदार सवर्ण राय चौधरी के पूर्वज संतोष राय ने इस स्थान की खोज की। उन्हें यहां भागीरथी नदी के किनारे एक तेज प्रकाश-पुंज नजर आया। प्रकाश-पुंज को खोजने पर उन्हें काले पत्थर का टुकड़ा मिला, जिस पर दाहिने पैर की अंगुलियां अंकित थीं। वे उस चमत्कारी शिलाखंड की देवी रूप में उपासना करने लगे। बाद में सवर्ण राय चौधरी ने 1809 में यहां मंदिर निर्माण कराया। मंदिर का वर्तमान प्रवेश द्वार व तोरण का निर्माण बिड़लाजी ने कराया, जिसका नवीनीकरण 1971 में किया गया। काली मंदिर के सामने नकुलेश्वर भैरव मंदिर है, जो 1805 में बना था। यहां स्थापित स्वयंभूलिंगम भी काली की प्रतिमा के पास ही नदी किनारे मिला था।
पुराणों में काली को शक्ति का रौद्रावतार मानते हैं और प्रतिमा या छवि में देवी को विकराल काले रूप में गले में मुंडमाल और कमर में कटे हाथों का घाघरा पहने, एक हाथ में रक्त से सना खड्ग और दूसरे में खप्पर धारण किए, लेटे हुए शंकर पर खड़ी जिह्वा निकाले दर्शाया जाता है। लेकिन, कालीघाट मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं। यह प्रतिमा एक चौकोर काले पत्थर पर उकेरी है। यहां लाल वस्त्र से ढकी मां काली की प्रतिमा के हाथ स्वर्ण आभूषणों और गला लाल पुष्प की माला से सुसज्जित है। मां को प्रसन्न करने के लिए यहां प्रतिदिन बकरे की बलि चढ़ती है। श्रद्धालुओं को प्रसाद के साथ सिंदूर का चोला दिया जाता है।
कोलकाता में ही हुगली नदी के किनारे स्थित है दक्षिणेश्वर काली मंदिर, जहां माता के परमभक्त और साधक स्वामी रामकृष्ण परमहंस पुजारी हुआ करते थे। यह मंदिर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने बनवाया, जिन्हें सपने में मां काली ने मंदिर बनवाने का निर्देश दिया था। 1855 में तैयार हुआ यह मंदिर 25 एकड़ में विस्तारित है, जिसके भीतरी भाग में हजार पंखुडिय़ों वाला चांदी का कमल (फूल) स्थित है। 46 फुट चौड़े तथा 12 गुंबद वाले इस मंदिर की ऊंचाई 100 फुट है, जो अनूठी बांग्ला शैली की वैविध्यता को दर्शाता है। मंदिर के विशाल व हरेभरे परिसर में भगवान शिव के 12 मंदिर स्थापित हैं तथा सामने कल-कल करती हुगली की नैसर्गिक सुषमा भुलाए नहीं भूलती। यहां से बेलूर मठ के लिए नाव से जाना पड़ता है, जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनकी लीलासंगिनी मां शारदा का अद्भुत स्थल है, जो स्वामी विवेकानंद से गहरे से जुड़ा है। रामकृष्ण मिशन इसका संचालन व देखभाल करता है, जिसकी स्थापना स्वामी विवेकानंद ने 1899 में की थी। यहां 1938 में बना मंदिर हिंदू, मुस्लिम व ईसाई शैलियों का मिश्रण है।
मां काली की आस्था से सराबोर कोलकाता अपने अस्तित्व से ही तंत्रमंत्र, ध्यान, ज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, कला, साहित्य व संस्कृति का केंद्र रहा है। साहित्यिक, क्रांतिकारी व कलात्मक धरोहरों से सजे अत्यधिक सृजनात्मक ऊर्जा वाले इस शहर के दर्शनीय स्थलों का कोई सानी नहीं। यहां की इमारतों में गोथिक, बरोक, रोमन व इंडो-इस्लामिक स्थापत्य की शैलियों का भान सहज ही हो जाता है। यहां 1894 में बना एशिया का प्राचीनतम संग्रहालय हो, या 1906 से 1921 के बीच निर्मित विक्टोरिया मेमोरियल, सभी यहां की समृद्धता को दर्शाते हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में महारानी विक्टोरिया के पियानो, स्टडी डेस्क सहित 3000 से ज्यादा वस्तुएं संग्रहित हैं, इसके अलावा इमारत के मुगलिया शैली के गुंबद और उनके शीशों की बेहतरीन स्टोन्ड ग्लास पेंटिंग, भित्तिचित्र, ग्रांड-ऑल्टर आज भी आगंतुकों को लुभाती हैं। इसके अलावा यहां देश के सबसे बड़े पार्कों में शुमार मैदान व फोर्ट विलियम, अनूठी शिल्पकला का द्योतक सेंट पॉल कैथेड्रल, ईडन गार्डन्स के छोटे से तालाब में बना बर्मा का पगोडा, मार्बल पैलेस, पारसनाथ जैन मंदिर, मदर टेरेसा होम्स, बॉटनिकल गार्डन्स, जंतर-मंतर, फाइन आट्र्स अकादमी, टॉलीवुड आदि अनगिनत दर्शनीय स्थल हैं। पर्वों में जगद्धात्री पूजा, पोइला बैसाख, सरस्वती पूजा, रथयात्रा, पौष पार्बो, होली, क्रिसमस, ईद तथा सांस्कृतिक उत्सवों में पुस्तक मेला, फिल्मोत्सव, डोवरलेन संगीत उत्सव, नेशनल थिएटर फेस्टिवल आदि प्रसिद्ध हैं। यहां परिधानों में तांत की साड़ी तथा व्यंजन में बंगाली मिठाइयां, रसगुल्ला व खानपान में मछली के दर्जनों वैराइटी मौजूद हैं। साथ ही, सुभाषचंद्र बोस, जगदीशचंद्र बोस, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, रविंद्रनाथ टैगोर, काजी नजरुल इस्लाम, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, जीबनानंद दास, बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय, आशापूर्णा देवी, महाश्वेतादेवी, अमत्र्य सेन जैसी बेशुमार विश्व विख्यात हस्तियों के नाम व कारनामें कम नहीं होंगे, भले ही उन्हें लिखते-लिखते शब्द कम पड़ जाएं।
सर्वेश पाठक

Monday, October 12, 2009

'काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का

आकाशेतारकंलिङ्गं, पाताले हाटकेश्वरम्।
भूलोकेचमहाकालं, लिंङ्गंत्रयनमोह्यस्तुते॥
अर्थात आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर तथा भूलोक के स्वामी महाकाल हैं। इन तीनों को स्मरण कर नमन किया जाए, तो देवाधिदेव महादेव की पूजा संपन्न मानी जाती है। यूं तो धर्म में आस्था रखने वाले श्रद्धालु महाकालेश्वर की त्रिलोक महिमा से भली भांति परिचित होंगे, किंतु भगवान महाकाल व पुण्यसलिला क्षिप्रा को धारण करने वाली मोक्षदायिनी उज्जयिनी प्रवास का मोह न रखने वाले विरले ही होंगे। भोपाल से सड़क मार्ग से जब हमलोग उज्जैन पहुंचे, तो दिन ढल रहा था, लेकिन इस पुण्य नगरी में प्रवेश करते ही घंटियों-घडिय़ालों की आवाज तथा 'बम बम भोले व 'जय महाकाल की गूंज ने तन मन को ऐसा स्पंदित किया, मानो आस्था व भक्ति का सूरज अभी अभी उदय हुआ हो।
महाकालेश्वर के दर्शन को मन की व्याकुलता दब नहीं रही थी, अतएव हमलोग सीधे जा पहुंचे महाकाल मंदिर। शाम की आरती का वक्त था और काल नियंत्रक महाकाल के भव्य शृंगार की अलौकिक छटा देखते ही बनती थी। देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर संसार का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है, जो स्वयंभू होने के साथ साथ तांत्रिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कहते हैं महाकाल के समक्ष महामृत्युंजय का जप करने से द्वार पर आई मृत्यु उल्टे पांव लौट जाती है, रोगी स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाता है। महाकाल की आराधना से अकाल मृत्यु का योग नष्ट हो जाता है और मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति भी नया जीवन पाता है। मालवा में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'अकाल मृत्यु वो मरे, जो काम करे चण्डाल का। काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का..!
शिव पुराण में बताया गया है कि भूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी वासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए भगवान शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न हो भगवान शिव ज्योति रूप में प्रकट हुए तथा दैत्य का संहार कर लोगों की रक्षा की। इसके बाद भक्तों के आग्रह पर भोलेनाथ लिंग रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए, इसीलिए इन्हें महाकाल कहा जाता है, जो काल से भक्तों की रक्षा करते हैं। यह दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहां भस्म द्वारा महाकाल की अद्भुत आरती की जाती है। इस दौरान वैदिक मंत्रों व स्तोत्र पाठ, वाद्ययंत्रों, शंख डमरू व घंटी घडिय़ालों द्वारा की गई शिव स्तुति अंत:चेतना को जगा देती है। भस्म आरती के समय साधारण वस्त्रों में गर्भगृह प्रवेश वर्जित है, इस दौरान पुरुषों को रेशमी धोती तथा महिलाओं को साड़ी पहनना जरूरी है। अन्य परिधान में भक्त बाहर हाल से महाकाल की भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं। प्रचलित कथा के मुताबिक पहले यहां मुर्दे की चिता भस्म से भोलेनाथ का शृंगार किया जाता था। एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने से महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया और बालक की चिता भस्म से भूतभावन का शृंगार कर दिया, तब से यहां मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर से बने कंडों की भस्म से भगवान शिव का शृंगार किया जाता है। उज्जयिनी में श्रावण मास का खासा महत्व है। सावन के हर सोमवार को महाकाल प्रजा का हाल जानने नगर भ्रमण पर निकलते हैं। इस दौरान भगवान के मुखौटे को पालकी में रख प्रमुख मार्गों पर भ्रमण कराया जाता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु अपने प्रभु के दर्शन करते हैं। सावन के अंतिम सोमवार को महाकाल की शाही सवारी निकलती है और प्रजा पालक महाकाल के जयघोष से पूरा नगर गुंजायमान हो जाता है। युगों-युगों से यहां बसे महाकालेश्वर का उल्लेख पुराणों, महाभारत के अलावा कालीदास तथा तुलसीदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में भी किया गया है। माना जाता है कि मंदिरों की नगरी उज्जैन में करीब चार लाख तीर्थस्थल हैं। प्रामाणिक तौर पर इस पुण्य नगरी का इतिहास 600 साल वर्ष ईसा पूर्व का है, जिसका शासन सम्राट चंद्रप्रद्योत के हाथों में था। प्रद्योत वंश का प्रभुत्व यहां ईसा की तीसरी शताब्दी तक था। इसके बाद यहां मौर्य साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसने अशोक जैसे महान सम्राट दिए, फिर हर्षवद्र्धन और बाद में परमार, चौहान व तोमर शासकों का शासन रहा। वर्ष 1235 में इल्तुत्मिश ने नगर को काफी नुकसान पहुंचाया, जिसका असर महाकाल की प्राचीन मंदिर पर भी पड़ा। यवनों के शासनकाल (1107-1728) में इस धार्मिक नगरी की 4500 वर्षों से ज्यादा पुरानी आध्यात्मिक व पौराणिक परंपराओं की अत्यधिक क्षति हुई। लेकिन, 1728 से यहां मराठों का अधिपत्य हुआ और 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी रही। इसी दौरान महाकालेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण, ज्योतिर्लिंग की पुनप्र्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई। करीब 250 साल पहले सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया। एक परकोटे के भीतर तीन तलों में विस्तारित विश्व प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए सीढ़ीदार रास्ता है, जिसके ठीक ऊपर के कक्ष में ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा स्थापित है, जिनके दर्शन नागपंचमी को ही संभव है।
१०.७७ गुना १०.७७ वर्गमीटर में फैले २८.71 मीटर ऊंचे इस भव्य मंदिर से लगा कोटितीर्थ नामक जलस्रोत है। कहते हैं कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया, तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिंकवा दिया था। बाद में इसकी पुनप्र्रतिष्ठा कराई गई। 1968 के सिंहस्थ महापर्व पर इसके मुख्य द्वार को संवारा गया और निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण हुआ, जबकि 1980 के सिंहस्थ से पूर्व बिड़ला उद्योग समूह ने यहां विशाल मंडप बनवाया, ताकि भीड़ में श्रद्धालुओं को कम परेशानी हो। हाल ही में मंदिर के 118 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई। मंदिर की व्यवस्था के लिए यहां प्रशासनिक कमेटी गठित है, जो यहां की देखभाल सुचारू रूप से करती है।
महाकालेश्वर के अलावा भी उज्जयिनी में कई तीर्थ व पौराणिक महत्व के विश्वप्रसिद्ध स्थल हैं। मालवा की संस्कृति से लबरेज यहां के सहृदय व सरल लोग सहज ही आगंतुकों को अपना बना लेते हैं। सात प्रमुख पौराणिक नगरियों में शुमार उज्जैन के श्री बड़े गणेश मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, हरसिद्धि, गोपाल मंदिर, गढ़कालिका देवी, भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर, दुर्गादास की छत्री, कालभैरव आदि प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। इनमें प्रत्येक के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं, जो आज भी घोर आस्था का प्रतीक है। इसके अलावा अवंतिका, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती, उज्जयिनी आदि विविध नामों से अभिहित उज्जैन के अनेक ऐतिहासिक परिवर्तनों की साक्षी क्षिप्रा नदी का यहां के प्रत्येक तीर्थ से गहना नाता है। कवि, संत, श्रद्धालु, पर्यटक, कलाकार हर किसी को लुभाने वाली क्षिप्रा के मनोरम तट सहज ही आगंतुकों का मन मोह लेते हैं। यहां लगने वाला सिंहस्थ 12 वर्षों के अंतराल पर आता है, जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। इसी दौरान यहां विश्व भर से श्रद्धालु जुटते हैं।
सर्वेश पाठक

Thursday, October 8, 2009

आद्यशक्ति का दिव्य स्थल विंध्याचल

या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:॥
अर्थात, सृष्टि के कण-कण में शक्ति स्वरूप स्थित हे देवी भगवती, आपको शत शत नमन! धर्म में आस्था रखने वालों में विरले ही होगा, जिसे जगतजननी मां विंध्यवासिनी की अलौकिकता का भान न हो। वैसे तो हमलोग कई बार मां के चरणों में शीष नवाने पहुंचे हैं, लेकिन नवरात्रकाल में यहां के दिव्य दर्शन की अनुभूति आज भी तनमन को पुलकित कर देती है। पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर विंध्य की मनोरम पर्वत शृंखलाओं की गोद में आदि अनादि काल से बसी मां विंध्यवासिनी आद्य महाशक्ति हैं। मीरजापुर के विंध्याचल रेलवे स्टेशन के निकट गंगाजी से महज दो फर्लांग दूर बस्ती के बीचोबीच स्थित मां विंध्यवासिनी का दिव्य स्थल युगों युगों से आस्था का केंद्र है।
कहते हैं त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद भी समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि यहां महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती स्वरूपा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी विराजती हैं।भोर के वक्त मां के धाम पहुंचते ही सबसे पहले हमलोगों ने गंगा स्नान किया, फिर 'जय माता दी का उद्घोष करते जा पहुंचे दिव्य धाम! नवरात्र का पर्व, भक्तों की अपार भीड़, जैसे-जैसे गर्भगृह के निकट पहुंचते गए, वैसे-वैसे 'जय माता दी की अंर्तध्वनि तीव्र होती गई। इस पुण्य स्थल का बखान पुराणों में तपोभूमि के रूप में किया गया है। यहां सिंह पर आरूढ़ देवी का विग्रह ढाई हाथ लंबा है। इस संदर्भ में अनेक कथाएं हैं।
श्रीमद्देवीभागवत के दसवें स्कंध में सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सबसे पहले स्वयंभुवमनु तथा शतरूपा को प्रकट किया। स्वयंभुवमनु ने देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया, जिससे प्रसन्न हो भगवती ने उन्हें निष्कंटक राज्य, वंश-वृद्धि, परमपद का आशीर्वाद दिया। वर देकर महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चलीं गईं, जिससे स्पष्ट है कि सृष्टिकाल से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है और सृष्टि विस्तार उन्हीं के शुभाशीष से संभव हुआ। त्रेतायुग में श्रीराम ने यहां देवी पूजा कर रामेश्वर महादेव की स्थापना की, जबकि द्वापर में वसुदेव के कुल पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचंडी का अनुष्ठान किया था।
मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं 'वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में अवतीर्ण हो विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातोंरात यमुना नदी पार कर नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मीं योगमाया को मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही कन्या को पत्थर पर पटककर मारना चाहा। वह उसके हाथों से छूट आकाश में पहुंची और दिव्य स्वरूप दर्शाते हुए कंस वध की भविष्यवाणी कर विंध्याचल लौट गई।
मंत्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी को वनदुर्गा बताया गया है। कहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।माता विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री हैं। यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री भी कहते हैं। यूं तो आदिशक्ति की लीला भूमि विंध्यवासिनी धाम में सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, पर शारदीय व चैत्र नवरात्र में यहां देश के कोने कोने से आए भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है।
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी के पताका में ही होता है।ऋषियों के अनुसार देवी के ध्यान में स्वर्णकमल पर विराजी, त्रिनेत्रा, कांतिमयी, चारों हाथों में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धात्री, पूर्णचंद्र की सोलह कलाओं से परिपूर्ण, गले में वैजयंती माला, बाहों में बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुंडल धात्री, इंद्रादि देवताओं द्वारा पूजित चंद्रमुखी परांबा विंध्यवासिनी का स्मरण होना चाहिए, जिनके सिंहासन के बगल में वाहन स्वरूप महासिंह है। मूर्तिरहस्य में ऋषियों के अनुसार नन्दा नाम की नंद के यहां उत्पन्न होने वाली देवी की भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा किए जाने पर वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं। शक्तिपीठ तंत्रशास्त्रोक्त त्रिकोण रूपा साधकों द्वारा युगों से सेवित है। भगवती महाशक्ति के त्रिगुणात्मक स्वरूप का संपूर्ण दर्शन यहां होता है।
त्रिकोण यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं। धारणा है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह, फिर चौबीस दल हैं, बीच में एक बिंदु है, जिसमें ब्रह्मरूप में महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं। यहां से महज तीन किलोमीटर दूर 'काली खोह नामक स्थान पर महाकाली स्वरूपा चामुंडा देवी का मंदिर है, जहां देवी का विग्रह बहुत छोटा लेकिन मुख विशाल है। इनके पास ही भैरवजी का स्थान है। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि में विंध्यवासिनी के दर्शन और पूजन का अतिशय माहात्म्य माना गया है।
पवित्र गंगा की कलकल करती धाराओं से लगा यह क्षेत्र महज भूखंड नहीं, बल्कि कला एवं संस्कृति का अद्भुत अध्याय है। यहां की माटी में अतीत के विविध तथ्य विश्राम कर रहे हैं। यहां से कुछ ही किलोमीटर दूर चुनारघाट से लगा ऐतिहासिक चुनारगढ़ का किला है, जिससे अनेक फंतासी व किंवदंतियां जुड़ी हैं। चुनार क्षेत्र में बनने वाले चीनी मिट्टी के खिलौने, बर्तन व सजावट के समान अपनी अद्भुत कारीगरी के लिए विश्व विख्यात हैं। विंध्य क्षेत्र में ही देवीधाम के आसपास चालीस किलोमीटर वृत्तक्षेत्र में पुरातात्विक महत्व के नौगढ़ व विजयगढ़ के विश्वप्रसिद्ध किले मौजूद हैं, जबकि विंडमफॉल, राजदरी, देवदरी, लखनिया दरी जैसे झील-झरनों से लबरेज नैसर्गिक क्षेत्र हैं, जहां जाने वाले को वहीं बस जाने का जी करता है। यहां के लोगों का सरल जीवन मां भगवती की भक्ति से ओतप्रोत है तथा इस क्षेत्र की लोक कलाओं का कोई सानी नहीं! कुल मिलाकर जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आस्था, संस्कृति, सभ्यता व पर्यटन की अनूठी मिसाल विंध्याचल सही मायने में हमें जीने की कला सिखाता है।
सर्वेश पाठक

Sunday, October 4, 2009

न्यारी है जगन्नाथधाम की महिमा

विलक्षण ही नहीं, अलौकिक भी है जगत के नाथ श्रीकृष्ण की पुरी
कहते हैं जहां ईश्वर का वास होता है, वहां नैसर्गिकता स्वत: रच बस जाती है और यदि वह जगह चारो धाम में से एक हो, तो क्या कहना... जी हां, हम चर्चा कर रहे हैं, जगत के नाथ भगवान श्रीकृष्ण की पुरी यानी जगन्नाथपुरी की, जहां की अलौकिकता को महसूस तो किया जा सकता है, पर बताना कठिन है। वाराणसी से नीलांचल एक्सप्रेस से हमलोग 20-22 घंटे का सफर तय कर भुवनेश्वर पहुंचे, तो पता चला कि यहां से पुरी के लिए आगे का सफर बस से करना है। वहां से करीब एक घंटे बाद हमलोग पुरी में थे, रात हो चली थी, अत: प्रभु दर्शन के लिए सुबह का इंतजार करना था। यात्रा की थकान और भगवान जगन्नाथ की छवि की कल्पना करते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला। भोर में मंदिर की घंटियों से आंख खुली और हमलोग तरोताजा हो निकल पड़े समुद्र दर्शन, फिर जगन्नाथजी के दर्शन को।
कुछ मिनटों की चहलकदमी, फिर सामने विशाल, स्वच्छ व निर्मल समुंदर, हममें से कइयों ने पहली बार सागर देखा, दूर तक पानी मानों जीवन यहीं ठहर गया और आगे केवल पानी का कोलाहल। जी चाहा कि यहीं ठहर जाएं और घंटों इन उत्साहित लहरों को निहारते रहें। यहां विश्व का सबसे बड़ा समुद्री तट है। कुछ पलों बाद सूर्योदय हुआ, तो लगा जैसे सूर्य देवता भी जगन्नाथजी को प्रणाम करने के लिए ही उदय हुए हैं। इसके बाद हमलोग बढ़ चले जगन्नाथजी के दर्शन को, करीब चार लाख वर्ग फुट में, चहारदीवारी से घिरे इस विशाल मंदिर के द्वार से ही परिसर की भव्यता का भान हो जाता है। उडिय़ा शैली की स्थापत्य एवं शिल्पकला के अनूठे संगम ने समूचे परिसर को अनुपम बना दिया है। वक्राकार मंदिर के शिखर पर श्रीविष्णु का आठ आरों वाला चक्र मंडित है, जिसे नील चक्र भी कहते हैं। अष्टधातु से बने इस चक्र को पवित्रतम माना जाता है। 214 फुट ऊंचे मंदिर का प्रमुख ढांचा एक पाषाण चबूतरे पर स्थापित है, जो बाहर से बीस फुट ऊंची चहारदीवारी से घिरा हुआ है। भीतर गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, बड़े भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा की दिव्य प्रतिमा स्थापित हैं, जिनके दर्शन मात्र से आत्मा तृप्त हो जाती है, ऐसा लगता है मानो जगन्नाथजी भक्तों को मुस्कुराते हुए आत्मसात कर रहे हों। यदि आत्मा-परमात्मा का मिलन मानते हों, तो उसकी अनुभूति यहां सहज ही की जा सकती है। कहते हैं यदि कोई यहां तीन दिन व रात ठहर जाए, तो वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जगन्नाथजी की मूल मूर्ति एक अंजीर वृक्ष के नीचे मिली, जो इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित थी। इसकी चकाचौंध से धर्म ने इसे पृथ्वी में छिपाना चाहा, लेकिन मालवा नरेश इंद्रद्युम्न के स्वप्न में मूर्ति दिखाई दी। फिर राजा ने कठिन तप किया, तो श्रीहरि विष्णु ने बताया कि वह पुरी के तट पर जाएं, जहां एक दारु लकड़ी का लट्ठा मिलेगा और उससे मूर्ति निर्माण कराएं। राजा ने ऐसा ही किया, लट्ठा मिलने पर विष्णुजी और विश्वकर्माजी कारीगर और मूर्तिकार बन राजा के पास पहुंचे और शर्त रखी कि एक माह में मूर्ति तैयार करेंगे, लेकिन इस बीच वे बंद कमरे में रहेंगे और कोई भीतर नहीं आए। समय सीमा समाप्त होने पर कई दिनों तक कोई आवाज नहीं आई, तो राजा ने उत्सुकतावश कमरे में झाका। फिर वृद्ध कारीगर बाहर आया और कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने हैं। राजा के दुखी होने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और मूर्तियों को ऐसे ही स्थापित कर पूजा जाए, तभी से प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि यहां पहले बौद्ध स्तूप था, जिसमें गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे श्रीलंका पहुंचा दिया गया। दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म को वैष्णव संप्रदाय ने आत्मसात कर लिया, तब जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता हासिल की। वहीं, गंग वंश काल के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन चोड गंगदेव ने शुरू कराया था, जिनके शासनकाल (1078-1148) में मंदिर के जगमोहन और विमान भाग बने थे। बाद में उडिय़ा शासक अनंग भीमदेव ने 1174 में मंदिर को वर्तमान रूप दिया। कहते हैं ब्रिटिशकाल में सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर को कई टन स्वर्ण दान किया, साथ ही वसीयत में उन्होंने बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी मंदिर को लिखा। बाद में अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार कर लिया, नहीं तो कोहिनूर भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता। मंदिर परिसर का सबसे बड़ा आकर्षण यहां की विशाल रसोई है, जो भारत की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है, यहां भगवान को चढऩे वाले महाप्रसाद को तैयार करने में पांच सौ रसोइए तथा तीन सौ सहायक सहित करीब एक हजार लोग काम करते हैं।
भगवान जगन्नाथ का यह धाम कई मायनों में अपनी अलग विशेषता रखता है। विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा और नवकाले बाड़ा यहां के प्रमुख पर्व हैं। नवकाले बाड़ा एक धार्मिक अनुष्ठïान है, जिसमें मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाओं का स्वरूप बदला जाता है, जिसके तहत विधिविधान से 'दारु (लकड़ी) को मंदिर में लाते हैं तथा चंदन-नीम की लकड़ी से कड़े धार्मिक कर्मकांड द्वारा मूर्तियों को सुगंधित किया जाता है। कहते हैं इस दौरान 21 दिन व रात के लिए स्वयं विश्वकर्मा मंदिर में प्रवेश कर मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इसके बाद पहले ब्रह्मा को प्रवेश कराकर फिर विधिविधान से मूर्तियों को यहां विराजमान कराते हैं। नवंबर में होने वाले इस पर्व के दौरान उड़ीसा की शिल्पकला, विविध व्यंजन व सांस्कृतिक संध्याएं विशेष आकर्षण होते हैं। ऐसे ही, आषाढ़ शुक्लपक्ष की द्वितीया को आयोजित होने वाली रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है, जिसे देखने संसार के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का जमघट यहां लगता है। नौ दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में जगन्नाथ मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाएं विशाल एवं भव्य रथों पर सुसज्जित हो नगर भ्रमण पर निकलती हैं। इस दौरान 45।6 फुट ऊंचे नंदीघोष नामक रथ पर प्रभु जगन्नाथ, 45 फुट ऊंचे तालध्वज नामक रथ पर भगवान बलभद्र तथा 44।6 फुट ऊंचे दर्पदलन नामक रथ पर देवी सुभद्रा नगर की सैर पर निकलते हैं। देवों को लाने के लिए इन विशाल रथों को मंदिर के बाहर परंपरानुसार खड़ा करते हैं, जिसे पहंडी बीजे कहते हैं। गजपति स्वर्णिम झाड़ू से सफाई करता है।
रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से आरंभ हो दो किमी दूर गुंडिचा मंदिर पहुंचकर समाप्त मानी जाती है। पर्व काल में तीनों प्रतिमाएं गुंडिचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं, फिर वापस उन्हें मुख्य मंदिर में लाया जाता है। रथयात्रा कब से शुरू हुई, इसका कोई मूल साक्ष्य नहीं है, लेकिन मान्यता है कि यह मध्यकाल से ही मनाया जाता है, साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में वैष्णव कृष्ण मंदिरों में भी रथयात्रा मनाते हैं। वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा होने के कारण गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए इसका खासा महत्व है, क्योंकि इस संप्रदाय के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ की ओर आकर्षित हो कई वर्षों तक पुरी में भी रहे थे। रथयात्रा पर्व में श्रद्धालु रथ को हाथों से खींचकर अपने आराध्य को नगर दर्शन कराते हैं। इस दौरान रथों को विविध रंगों से सजाते हैं, जो प्रत्येक मूर्ति के महत्व को दर्शाते हैं।
पुरी में जगन्नाथधाम और रथयात्रा के अलावा भी बहुत कुछ दर्शनीय है, जिसमें यहां का लोकनाथ मंदिर भी शामिल है। लोगों का विश्वास है कि प्रभु श्रीराम ने इस स्थान पर अपने हाथों से शिवलिंग की स्थापना की थी। साथ ही, बालीघाई तथा सत्याबादी भी पुरी के प्रमुख धार्मिक स्थलों में शुमार हैं। इस छोटे किंतु विलक्षण स्थान की सभ्यता एवं संस्कृति का भी कोई सानी नहीं है, कलाकारों के लिए तो मानो यह नगरी स्वर्ग से कम नहीं है। यहां के कलाकार समुद्र की रेत को कोई भी आकृति प्रदान करने के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। यहां का शंकराचार्य महाराज का आश्रम देश के कोने कोने मेें आस्था, विश्वास, धर्म, अध्यात्म व ध्यान की अलख जगाए हुए है।
सर्वेश पाठक