Saturday, December 26, 2009

बुद्धम् शरणम् गच्छामि

नैसर्गिकता से सराबोर सुरम्य टीले पर स्थित है विश्व धरोहर सांची का बौद्ध स्तूप
कहते हैं जहां समस्त ज्ञान, ध्यान व अध्यात्म की पूर्णता होती है, वहां से बुद्धत्व का प्रारंभ होता है अर्थात जिस आत्मिक सुख व शांति की तलाश में हम जीवनभर भटकते हैं, उसकी अनुभूति बुद्ध के शरणागत होने पर ही संभव है। भौतिकवादी युग के तनावभरे जीवन में आज भी समूचा विश्व भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन को बौद्धिकता, दार्शनिकता व जीवंतता का सर्वोत्तम प्रतीक मानता है, जो उन्होंने हजारों साल पहले मनुष्य को दिया था। बुद्ध ने बौद्धिकता व दर्शन के प्रसार हेतु अपने भ्रमणकाल में जिन स्थलों को अपनाया, वहीं आज बौद्धों के पवित्र तीर्थ और विश्वप्रसिद्ध धरोहर बन गए हैं। इन्हीं में से एक है मध्यप्रदेश में भोपाल से 46 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित सांची का बौद्ध स्तूप। रायसेन जिले में विदिशा से महज 10 किलोमीटर दूर 300 फुट ऊंची पहाड़ी पर बसे बौद्धों के इस प्रमुख पुण्य स्थल पर पहुंचते ही आसपास की दिव्यता का भान हो जाता है। आदिकाल में बेदिसगिरि, चेतियागिरि, काकनाय, नीचगिरि आदि नामों से प्रसिद्ध सांची की नैसर्गिकता सहज ही उस जिज्ञासा को शांत कर देती है कि मानव सभ्यता को शांति का संदेश देने के लिए ईश्वर कैसे इतना शांत और अद्भुत स्थल तलाश लेता है, जहां पहुंचकर छुद्र मन भी बुद्धत्व में लीन हो जाए। जी हां, वह सांची ही है, जहां समस्त ज्ञान व दर्शन बौना नजर आता है और लगता है कि इससे शांत, दिव्य व भव्य स्थल दुनिया में दूसरा नहीं हो सकता।
कहते हैं सम्राट अशोक ने विदिशा के एक श्रेष्ठïी की पुत्री देवी से विवाह किया था। क्रोधी स्वभाव के अशोक का चित्त कलिंग युद्ध के रक्तपात से वितृष्णा से भर गया और वह संसार से विमुख हो गए। फिर, पत्नी के कहने पर अशोक बुद्ध के शरणागत हो गए, तब जाकर कहीं उन्हें शांति मिली। देवी की इच्छा पर ही अशोक ने सांची में सुंदर व विशाल स्तूप बनवाया। अशोक ने शांत, सुंदर सांची को बौद्ध धर्म का प्रसार केंद्र बनाया। उनके पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा यहीं से बोधिवृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका गए थे, वे अपनी मां के साथ सांची में निर्मित विहार में ठहरे भी थे। पौराणिक महत्व वाले और प्रेम, शांति, विश्वास व साहस के प्रतीक सांची का महान व मूल स्तूप सम्राट अशोक ने तीसरी शती, ईसा पूर्व में बनवाया, जिसके केंद्र में अर्धगोलाकार ढांचे में भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे हैं। सबसे बड़े आकार वाले सांची के मूल स्तूप के चारों ओर भूमिस्थ वेदिका, चार तोरण द्वार, मेधि वेदिका तथा वहां तक पहुंचने का सोपान है तथा इसके हार्मिका के मध्य में यष्टिï है, जिस पर तीन छत्र हैं। इसके शिखर पर धर्म का प्रतीक विधि चक्र सजाया गया। स्तूप का व्यास 36.60 मीटर तथा ऊंचाई 16.46 मीटर है, यहां बुद्ध की चार प्रतिमाएं हैं, जो पांचवीं, छठीं शती ईस्वी की मानी गई हैं। पश्चिमी छोर पर 500 मीटर आगे दूसरा स्तूप है, जिसके गर्भगृह में प्रदक्षिणा पथ से 2.13 मीटर ऊंचाई पर बौद्ध प्राचार्यों के धातु अवशेष मिले थे। जबकि, निकट ही 15 मीटर व्यास व 8.23 मीटर ऊंचा तीसरा स्तूप है। दूसरा व तीसरा स्तूप द्वितीय शती ईसा पूर्व का माना गया है। सबसे पुराना हिस्सा बड़े स्तूप का दक्षिणी द्वार माना गया है, जिसमें बुद्ध का जन्म दिखाया गया है। यहीं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सम्राट अशोक का स्तंभ विद्यमान है, कहते हैं यह स्तंभ चुनार से गंगा, यमुना तथा वेत्रवती नदियों को नावों से पार कराकर यहां तक लाया गया था। विविध कालों की शिल्पकलाओं का प्रयोग इसे अलौकिक वैविध्यता प्रदान करता है।
मान्यता है कि प्राचीनकाल में मन्नत पूरी होने पर बौद्ध अनुयायी स्तूप बनवाते थे, सांची व आसपास के क्षेत्रों में ऐसे स्तूपों की संख्या असंख्य है। इनमें बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र, मौटगल्यायन व अन्य बौद्ध भिक्षुओं के धातु रखे होने का प्रमाण मिलता है। श्रीलंकाई बौद्ध संघ ने 1952 में यहां मंदिर बनवाया, जिसमें भगवान बुद्ध की प्रतिमा के अलावा सारिपुत्र व मौटगल्यायन की अस्थियां सहेजी गई हैं। प्रतिवर्ष नवंबर के अंतिम रविवार को इन अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है, साथ ही इन्हें स्तूपों के चारों ओर प्रदक्षिणा करके मंदिर में रख दिया जाता है। इस दौरान विश्व के कोने कोने से बौद्ध धर्मावलंबी यहां आते हैं। स्तूप के शिखर पर सम्मान का प्रतीक छत्र सजा था, पर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान शुंग काल में यहां तोडफ़ोड़ की गई थी। माना जाता है कि शुंग शासक पुष्यमित्र ने स्तूप को नुकसान पहुंचाया, जिसे बाद में उसके पुत्र अग्निमित्र ने दुबारा बनवाया। स्तूप के मूल रूप का विस्तार पाषाण शिलाओं से हुआ। शिलालेखों के अनुसार दूसरे व तीसरे स्तूप का निर्माण शुंगकाल में हुआ, जबकि बेहतरीन तोरण सातवाहन वंश ने बनवाए। तोरण की सर्वोच्च चौखट सातवाहन राजा सतकर्णी की देन है। वर्णात्मक शिल्पों से उन्नत तथा काष्ठï शैली में गढ़े तोरण बुद्ध के जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करते हैं। बुद्ध के लिए मानव शरीर तुच्छ माना गया है, इसीलिए सांची में उन्हें कहीं भी मानव आकृति में नहीं दर्शाया गया है, बल्कि कहीं घोड़ा जिस पर बैठ वे पिता का घर त्यागे, तो कहीं उनके पदचिन्ह और कहीं बोधि वृक्ष का चबूतरा (जहां सिद्धार्थ बुद्धत्व में लीन हो गए) उकेरा हुआ है।
यहां के भित्तिचित्रों में यूनानी पहनावा भी दर्शनीय है, जिनमें वस्त्र, मुद्रा व वाद्ययंत्र स्तूप को अलंकृत करते हैं। बाद में इसे बौद्ध व हिंदू धर्म की शिल्पकलाओं से संवारा गया। गुप्तकाल ने भी सांची को काफी सजाया, यहां स्तूपों से मिली अधिकांश प्रतिमाएं व मंदिर इसी काल में बनाए गए, बाद में भिक्षुओं के निवास के लिए कक्ष बनाए गए, जिनका निर्माण आठवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच माना गया है। वर्तमान ढांचे की चर्चा करें, तो ब्रिटिश जनरल टेलर ने सांची के स्तूप का अस्तित्व दर्ज किया है, पर इसका समुचित जीर्णोद्धार नहीं हो पाया। जॉन मार्शल की देखरेख में 1912 से 1919 के बीच स्तूप को वर्तमान रूप दिया गया तथा 1989 में यह विश्व धरोहर घोषित हुआ। सांची के टीले पर लगभग 50 स्मारक स्थल हैं, जिनमें स्तूप और कई मंदिर शामिल हैं। सांची ही नहीं आसपास का समूचा क्षेत्र बौद्धमय है, यहां से पांच मील दूर सोनारी के पास आठ बौद्ध स्तूप तथा सात मील दूर भोजपुर के समीप 37 बौद्ध स्मारकों का साक्ष्य है। कहते हैं सांची में पहले बौद्ध विहार भी थे तथा समीप स्थित सरोवर की सीढिय़ां भी बुद्ध के समय की मानी जाती हैं।
सर्वेश पाठक

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