Wednesday, September 30, 2009

वेंकटमना-गोविंदा, गोविंदा-गोविंदा..!

भवसागर पार लगाते बालाजी
तिरुमाला की सुरम्य पर्वत शृंखला पर बसे हैं वेंकटेश्वर
वेंकटमना-गोविंदा, गोविंदा-गोविंदा..! यह पंक्ति उन भक्तों को अवश्य याद होंगी, जिन्होंने तिरुपति बालाजी मंदिर के दर्शन किए होंगे। जी हां, यहीं वह पंक्ति है, जिसका स्मरण कर भक्त अपने भगवान बालाजी के दर्शन करते हैं और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। इस विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर गए सभी भक्त जानते होंगे कि बालाजी दर्शन के लिए विभिन्न जगहों तथा बैंक आदि से एक विशेष पर्ची कटती है, जिसके बाद ही प्रभु वेंकटेश्वर का दर्शन संभव है।
सौभाग्य से जिस दिन हमलोग तिरुपति पहुंचे, उस दिन वहां दर्शन पर्ची समाप्त हो गई थी और रात्रि के ग्यारह बजे तक प्रभु के सीधे दर्शन की अनुमति थी। टोकन सिस्टम से बालाजी दर्शन के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब पर्ची के बिना भक्तों ने प्रभु दर्शन किया और अगले दिन यह स्थानीय मीडिया का प्रमुख समाचार बना। हमलोगों के लिए भी बालाजी के सीधे दर्शन की बात किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। आनन फानन में हमलोग वहां की भव्य धर्मशाला श्रीनिवासम पहुंचे और घंटे भर में तैयार हो एपीएसआरटीसी की बस में निकल पड़े प्रभु वेंकटेश के दर्शन को। धाम पर पहुंचते-पहुंचते रात के दस बज गए थे, मंगलवार मेरे उपवास का दिन था, लेकिन न जाने कौन सी ऊर्जा थी कि वेंकटमना-गोविंदा-गोविंदा करते नंगे पांव मंदिर की ओर दौड़ पड़े। पट बंद होने के पहले हम लोग मंदिर में प्रवेश कर चुके थे और सामने प्रभु वेंकटेश्वर को देख तन-मन पुलकित हो उठा।
आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में समुद्र तल से तीन हजार फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर मौजूद तिरुमाला पर्वत शृंखलाओं की गोद में बसे तिरुपति बालाजी का मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तु एवं शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वामी पुष्करणी तालाब के निकट इस दिव्य स्थल पर भगवान विष्णु ने निवास किया था। इस स्थान के चारों ओर तिरुमाला पहाडिय़ा शेषनाग के सात फनों की भांति प्रतीत होती हैं, जिससे इन्हें सप्तगिरि कहते हैं। वेंकटाद्रि नाम से प्रसिद्ध सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है प्रभु वेंकटेश्वरैया का भव्य मंदिर। मान्यता है कि कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद ही मुक्ति संभव है।
एक अन्य अनुश्रुति में 11वीं शताब्दी में संत रामानुज को तिरुपति की सातवीं पहाड़ी पर प्रभु श्रीनिवास का साक्षात दर्शन हुआ और उनके आशीर्वाद से रामानुज को 120 वर्ष की दीर्घायु मिली, फिर उन्होंने वेंकटेश्वर की ख्याति दूर-दूर तक फैलाई। इस पुरातन धाम की स्थापना को लेकर कई धारणाएं हैं, जिनमें यह भी है कि मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई, जो समानता व प्रेम के सिद्धांत को मानता है। 5वीं शताब्दी तक तिरुपति बालाजी प्रमुख धार्मिक केंद्र बन चुका था। 9वीं शताब्दी में यहां कांचीपुरम के पल्लव शासकों का अधिपत्य था, लेकिन 15वीं शताब्दी के विजय नगर शासनकाल के बाद बालाजी की ख्याति दूर-दूर तक फैली। सन 1843 से 1933 तक अंग्रजी शासन में इस पुण्य स्थल का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला, जिसके बाद मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने स्वतंत्र प्रबंध समिति 'तिरुमाला तिरुपति को सौंप दिया। आंध्र प्रदेश के राज्य बनने पर समिति का पुनर्गठन हुआ और राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर यहां एक प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। यहां मुख्य मंदिर प्रांगण के गर्भगृह में भगवान वेंकटेश्वर की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्हें वेंकटेश्वर बुलाते हैं।
माना जाता है कि प्रभु वेंकटेश का दर्शन करने वाले पर उनकी विशेष कृपा होती है। वैंकुठ एकादशी पर यहां प्रभुदर्शन करने वाले के सभी पाप धुल जाते हैं और मनुष्य जीवन-मृत्यु के भवसागर से पार हो जाता है। मंदिर परिसर की भव्यता देखते ही बनती है और रात्रि के समय यहां से नीचे तिरुपति नगर स्वप्नलोक सा प्रतीत होता है। परिसर में बने अनेक द्वार, मंडपम व छोटे मंदिर अलग ही छटा बिखेरते हैं। पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम, तिरुमाला राय मंडपम, आइना महल, ध्वज स्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कवली, विमान प्रदक्षिणम, श्रीवरदराज स्वामी श्राइन पोटु आदि परिसर के प्रमुख आकर्षण हैं। बालाजी के दर्शन के लिए देश विदेश से आए लोग तीन-तीन दिनों तक लाइन लगाए रहते हैं और पचास हजार से ज्यादा श्रद्धालु प्रतिदिन दर्शन को आते हैं। श्रद्धालु यहां प्रभु को अपने केश चढ़ाते हैं, अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। कल्याण कट्टा नामक स्थल पर भक्त अपने केश दान करने के बाद पुष्करिणी में स्नानकर प्रभु दर्शन को जाते हैं।
तिरुपति प्रांगण में ही श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर है, जो बालाजी के बड़े भाई को समर्पित है। इस मंदिर का गोपुरम दूर से ही दिखाई पड़ता है, जो काफी भव्य है। इस मंदिर को संत रामानुजाचार्य ने 1130 में बनवाया था। यहां ब्रह्मोत्सव बैसाख में मनाया जाता है। तिरुपति से पांच किमी दूर है श्री पद्मावती समोवर मंदिर, जो भगवान वेंकटेश्वर की पत्नी श्री पद्मावती को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमाला की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक इस मंदिर का दर्शन न किया जाए। वेंकटेश्वर जहां विष्णु का अवतार हैं, वहीं पद्मावती को साक्षात लक्ष्मी माना गया है। यहां श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर, श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर, श्री कल्याण वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर, श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर, श्री चेन्नाकेशस्वामी मंदिर, श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर, श्री अन्नपूर्णा काशी विश्वेश्वरस्वामी मंदिर, श्री वराहस्वामी मंदिर, श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर तथा ध्यान मंदिरम आदि आध्यात्मिकता और धार्मिकता से परिपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं और सभी का अपना अलग इतिहास एवं उनसे संबद्ध पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा यहां आकाशगंगा वाटरफाल तथा टीटीडी गार्डन जैसे आकर्षक स्थल भी मौजूद हैं।
सर्वेश पाठक

Saturday, September 26, 2009

चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है!

मनौती पूरी करतीं मां वैष्णो
जय माता दी! यह पंक्ति मां भगवती के भक्तों को सहज ही वैष्णोधाम की अनुभूति करा देती है। वैष्णोदेवी यात्रा करने वालों में विरले ही कोई होगा, जो इन पंक्तियों को ना पहचाने, जिसकी प्रतिध्वनि भी 'जय माता दी ही है। कहते हैं कि मातारानी का बुलावा आने पर ही उनका दर्शन संभव है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ, जब फोन पर मुझे रेलवे स्टेशन पहुंचने को कहा गया। आपाधापी में आधे घंटे के भीतर मै ट्रेन में पहुंचा और वह चल पड़ी। रास्ते भर माता रानी का ध्यान करते जब हमलोग जम्मू पहुंचे, तो जय माता दी के उद्घोष से समूचा स्टेशन परिसर गूंज उठा। यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर कटरा का सफर बस से तय करना और माता दर्शन को उत्कट मन की अधीरता मानो थम नहीं रही थी। अत: हमलोग तरोताजा हो कटरा जाने वाली बस पर सवार हो गए। घुमावदार पहाड़ी रास्तों व हरीभरी वादियों के नैसर्गिक सौंदर्य ने ऐसा आत्ममुग्ध किया कि कटरा कब आया, पता ही नहीं चला। कटरा पहुंचकर श्राइनबोर्ड से यात्रा पर्ची ली और शुरू हो गई भक्ति में डूबी देवीधाम की अतुलनीय यात्रा।
समुद्रतल से करीब छह हजार फुट ऊपर त्रिकुटा पर्वत शृंखलाओं की गोद में बसी वैष्णोदेवी मां जगदंबा की शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखती हैं। करीब 13 किलोमीटर पैदल यात्रा के बाद ही मातारानी का दर्शन संभव है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वैष्णोदेवी ने दक्षिण भारत में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया व उन्हें त्रिकुटा नाम मिला। बाद में इनका अवतार विष्णु परिवार में हुआ और ये वैष्णवी कहलाईं। भगवान राम अपने वनवास काल में जब माता सीता को ढूंढ रहे थे, तो उन्होंने वैष्णवी को घोर तपस्या में लीन देखा। वैष्णवी ने श्रीराम से कहा कि उन्होंने उन्हें अपना पति मान लिया है, तो श्रीराम बोले कि इस जन्म में उनका अवतार सीता के लिए है, अत: वे कलियुग में उनके पति होंगे। श्रीराम ने उन्हें मानिक पर्वत पर त्रिकुटा शृंखला की गुफा में तप करने को कहा। यही गुफा मां का स्थान है और भूगर्भ शास्त्री भी इसे अरबों साल पुरानी मानते हैं।
कटरा से करीब दो किलोमीटर आगे भुमिका मंदिर है। मान्यता है कि करीब सात सौ वर्ष पूर्व यहीं पर श्रीधर पंडित को कन्या रूप में देवी दर्शन हुए। पंडितजी ने देवी की आज्ञानुसार यहां समष्ट भंडारा दिया, जिसमें गुरू गोरखनाथ व उनके शिष्य भैरवनाथ भी पधारे। भैरव ने दिव्य कन्या की परीक्षा लेनी चाही, तो माता पवन रूप में भुमिका से विलुप्त हो दर्शनी द्वार होते हुए त्रिकुट पर्वत की ओर बढ़ीं। स्मृति स्वरूप यहां दर्शनी दरवाजा बना, जहां से त्रिकुट पर्वत का मनोहारी दर्शन मिलता है। भैरव ने भी योग विद्या से देवी का पीछा किया। महाशक्ति के साथ वीर लंगूर भी थे। रास्ते में वीर लंगूर को प्यास लगी, तो देवी ने पत्थरों पर वाण चलाकर मीठी जलधारा निकाली और वीर लंगूर की प्यास तृप्त हुई। देवी ने भी वहां जल पीया और केश धोए। यहां आज भी वाणगंगा नदी बहती है, जिसके पावन जल में स्नान करने से कई रोग दूर होते हैं। वैष्णोधाम मार्ग में ही चरण पादुका मंदिर है, जहां महाशक्ति ने रुककर पीछे देखा कि भैरव आ रहा है या नहीं। रुकने से यहां माता के चरण चिन्ह बन गए, इसीलिए इसे चरण पादुका पुकारते हैं। इसके आगे अर्धकुमारी मंदिर आता है, जहां भैरव से छिपकर देवी ने नौ महीने तक गुफा में तपस्या की थी। गुफा भीतर से काफी संकरी व टेढ़ी मेढ़ी है, जिसमें जाने पर भक्तों के मुख से 'जय माता दी की ध्वनि स्वत: तीव्र हो जाती है। मान्यता है कि इस गुफा का निकासी द्वारा पाप व पुण्य का पैमाना है, जहां कई बार दुबले लोग भी फंस जाते हैं और मोटा व्यक्ति आसानी से निकल आता है।
अर्ध कुमारी से आगे ढाई किलोमीटर खड़ी चढ़ाई वाली यात्रा है, यहां पहाड़ी की आकृति हाथी के मस्तक जैसी प्रतीत होती है, इसी कारण इसे हाथी मत्था की चढ़ाई कहते हैं। चार किलोमीटर आगे सांझी छत है, जिसे दिल्ली वाली छबील भी कहते हैं। यहां से मां के दरबार का रास्ता समतल व ढालुवां है। वैष्णोधाम पहुंचकर हमलोगों ने कंपकंपा देने वाले शीतल व पावन जल में स्नान किया और यात्रा पर्ची दिखाकर प्रफुल्लित मन से पवित्र गुफा की ओर चले। गुफा के अंत में पिण्डी रूप में महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती का दिव्य दर्शन हुआ, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। गुफा के समीप ही श्रीराम मंदिर और यहीं 125 कदम नीचे शिव गुफा भी है, जिनके दर्शन का अलग ही महत्व है। वैष्णोदेवी यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक भैरवनाथ दर्शन न हो। भैरवनाथ मंदिर देवीधाम से करीब तीन किलोमीटर ऊपर खड़ी व कठिन चढ़ाई के बाद आता है। मान्यता है कि भैरव द्वारा परीक्षा हेतु पीछा किए जाने से देवी क्रुद्ध हो गईं और उन्होंने शस्त्र द्वारा भैरव का सिर धड़ से अलग कर दिया, जो दूर जा गिरा। इसके बाद उसने मां से पापों की क्षमा मांगी, तो उन्होंने वात्सल्य भाव से वर दिया कि वैष्णोदेवी दर्शन कर जो श्रद्धालु भैरव का दर्शन करेगा, उसकी हर मनोकामना पूर्ण होगी।
वैष्णोदेवी यात्रा के अलावा भी जम्मू में काफी कुछ दर्शनीय है, जिनमें प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर, विशाल शिवमंदिर, जामवंत गुफा, कालीमाता मंदिर आदि प्रमुख तीर्थस्थल हैं, जिनमें सभी का पौराणिक महत्व है। जम्मू के रघुनाथ मंदिर परिसर में जहां सभी देवी देवताओं, दसों दिशाओं व समस्त ग्रह नक्षत्रों के अलग अलग व छोटे छोटे मंदिर हैं, वहीं यहां के शिवमंदिर में सहस्त्र लिंग वाला विशाल व पवित्र शिवलिंग है, जो शायद ही आपने कहीं और देखा हो। इसी शहर में प्राचीन जामवंत गुफा है, जहां द्वापर काल में भगवान श्रीकृष्ण व रीछराज जामवंत के मल्लयुद्ध का प्रसंग पौराणिक कथाओं में मिलता है, भगवान व भक्त के बीच मल्लयुद्ध के पीछे त्रेतायुग से द्वापर तक की लंबी कथा है। अगर आप पर्यटन प्रेमी भी हैं, तो यहां कश्मीर भ्रमण भी किया जा सकता है, जो 'धरती का स्वर्ग के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध है। साथ ही, पटनी टॉप जैसे कई हिल स्टेशन भी यहां से काफी करीब हैं, जहां की नैसर्गिकता आपका मन मोह सकती है। खरीददारी के लिए जम्मू में फल व सूखा मेवा, ऊनी वस्त्र, लकड़ी के आकर्षक सामान और पश्मीना की चादर व कंबल आदि ढेरों सामग्री उचित मूल्य पर ली जा सकती हैं। सर्वेश पाठक

Monday, September 14, 2009

जहां बसे हैं साक्षात विश्वनाथ

सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी

देवाधिदेव महादेव भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी, जिसे शब्दों में समाहित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा है। बनारस और वाराणसी के नाम से भी सुविख्यात यह पुण्य नगरी न केवल वेदों, पुराणों में सर्वोपरि है, बल्कि अनेकानेक पुस्तकों ने भी इसके परिसीमन की कोशिश की है। लेकिन, इस पावन, पुरातन, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक नगरी की परिधि का मूल्यांकन संभव नहीं। यहां के पहुंचते ही लगता है, मानो धर्म के साथ स्वयं का साक्षात्कार हो रहा हो। प्रमुख रेलवे स्टेशन वाराणसी कैंट से करीब छह किलोमीटर दूर स्थित है दशाश्वमेघ घाट, जहां रिक्शे द्वारा आसानी से जा सकते हैं। पावन गंगा के निर्मल जल में स्नान व सूर्योपासना के बाद जब विश्वनाथ गली होते हुए विश्वनाथ मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तो हर हर महादेव की गूंज से तन मन पूरी तरह शिवमय हो जाता है।पुराणों में स्पष्ट है कि काशी में पग पग पर तीर्थ हैं। स्कंदपुराण काशी-खण्ड के केवल दसवें अध्याय में 64 शिवलिंगों का उल्लेख है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि उसके समय में यहां करीब 100 मंदिर थे, जिनमें एक भी 100 फुट से कम ऊंचा नहीं था। मत्स्यपुराण के अनुसार यहां पांच प्रमुख तीर्थ दशाश्वमेघ, लोलार्क कुंड, आदि केशव (केशव), बिन्दुमाधव और मणिकर्णिका हैं। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर में विराजे देवाधिदेव की इस पुण्य नगरी के संबंध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता, क्योंकि भगवान इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिïकाल में इसे नीचे उतार देते हैं। आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलाई जाती है, जहां भगवान विष्णु ने सृष्टि रचना के लिए तप कर आशुतोष को प्रसन्न किया, जिसके बाद उनके नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने सर्वस्व रचा। विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। यहां तक कि सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां गंगास्नान कर विश्वनाथ दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है और स्वयं महादेव कानों में तारक-मंत्र का उपदेश देकर प्राणी को संसार के आवागमन से मुक्त करते हैं। ऐसी भी धारणा है कि पृथ्वी का निर्माण हुआ, तो प्रकाश की पहली किरण काशी पर पड़ी। तभी से काशी जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आध्यात्म व संस्कृति का केंद्र है।एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।

यहां गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2।30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11।30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8।30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10।30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है। महाशिवरात्रि पर यहां के वैजनत्था मंदिर पर भव्य मेला भी लगता है।विश्वनाथ मंदिर के सामने ही मां अन्नपूर्णा का पवित्र मंदिर है, जिसे 1725 में मराठा सरदार पेशवा बाजीराव ने बनवाया था। मान्यता है कि यहां का प्रसाद अनाज भंडार में डालने से वह कभी खाली नहीं होता। यहां चांदी के सिंहासन पर विराजमान मां अन्नपूर्णा की कांस्य प्रतिमा का दर्शन रोजाना होता है। लेकिन, धनतेरस से दीपावली के तीन दिनों तक भक्तों को माता की स्वर्ण प्रतिमा का दर्शन मिलता है, जिसमें मां अन्नपूर्णा भगवान शिव को अन्नदान कर रही होती हैं। उन दिनों में भक्तों को प्रसाद में पैसा (सिक्का) व धान (अनाज) दिया जाता है, पैसे को धनकोश और अनाज को अन्नभंडार में रखने से कभी अन्न व धन की कमी नहीं होती। यहां से महज डेढ़ किलोमीटर दूर चौखंभा पर कालभैरव मंदिर है, जिसे सरदार विंचूरकर ने 19वीं सदी के आरंभ में बनवाया था। कालभैरव को काशी का कोतवाल माना जाता है, जो भूतों से नगर की रक्षा करते हैं। इनके हाथ में लाठी व बगल में श्वान (कुत्ता) रहता है। जैसे भगवान शिव का दिन सोमवार माना जाता है, वैसे ही कालभैरव का दिन रविवार है। काशी के मुख्य तीर्थस्थलों में तिलभांडेश्वर, संकठामाता, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, बटुक भैरव, शनिदेव और नौ देवियों के अलग-अलग मंदिर हैं। साथ ही नगर के आसपास के क्षेत्रों में रामेश्वर तीर्थ और त्रिलोचन महादेव भी मौजूद हैं।इसके अलावा यहां देश की पहली व एकमात्र भारतमाता मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित है, जिसे शिवप्रसाद गुप्त ने बनवाया था। यहां वैज्ञानिक रूप से शुद्ध पत्थरों से निर्मित अविभाजित भारत का मानचित्र है। काशी से करीब दस किलोमीटर दूर प्रसिद्ध बौद्ध धर्मस्थल सारनाथ है, जहां करीब ढाई हजार वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पहला उपदेश दिया। यहां पुराकुषाण काल का शिलालेख भी मिला है, जो धर्मोपदेश का अधूरा संग्रह है। भारतीय मुद्रा पर अंकित राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह भी यहीं से लिया गया है। प्राचीन सभ्यता का प्रतीक सारनाथ राष्ट्रीय धरोहर भी है, जहां के संग्रहालय में बौद्ध स्तूप सुरक्षित है। सारनाथ के रास्ते में ही सीता रसोई भी है, जहां कभी माता सीता ने अपने नाथ के लिए भोजन पकाया था।

मंदिरों के अलावा गंगाघाटों व गलियों के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां घाटों की संख्या सौ से अधिक है और प्रत्येक घाट से जुड़ी एक धार्मिक मान्यता व ऐतिहासिक गाथा प्रचलित है। इन घाटों पर जन्म से लेकर मृत्यु तक के धार्मिक संस्कार किए जाते हैं। यहां रोजाना मां गंगा की मनमोहक आरती होती है। गंगा महोत्सव व देव दीवाली पर गंगाघाटों का नजारा किसी स्वप्नलोक से कम नहीं होता। यहां के मणिकर्णिका घाट को मुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। पांचगंगा में पांच नदियों की धाराएं मिलने की कल्पना की गई है। काशी की पांचक्रोशी का विस्तार 50 मील में है। इस मार्ग पर सैकड़ों तीर्थ हैं, अत: इस नगरी में तीर्थों की संख्या अगणित है। यहां के कई मंदिरों में वास्तु एवं शिल्पकला का अनूठा मेल देखा जा सकता है।

नगरी काशी में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना 1916 में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने की थी। विश्वविद्यालय परिसर में ही नया विश्वनाथ मंदिर है, जो उस मंदिर का प्रतिरूप माना जाता है, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था। दो तल वाले इस मंदिर की दीवारों पर धर्म व लोकजीवन से संबंधित चित्र बने हैं, जिनके परिचय संस्कृत व हिन्दी में अंकित हैं और जो बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। विश्वविद्यालय परिसर में ही प्रसिद्ध संग्रहालय 'भारत कला भवन मौजूद है, जिसमें प्राचीन काल से लेकर मुगलों, अंग्रेजों व स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी विभिन्न सामग्री मौजूद हैं। यहां के अन्य विश्वविद्यालयों में काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, तिब्बती शास्त्र विश्वविद्यालय व जामिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी प्रमुख है।

यहांरामनगर का किला भी देखने योग्य है, जो वाराणसी से 14 किलोमीटर दूर है, यहां काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पास से गंगा नदी पारकर भी जाया जा सकता है। 18वीं शताब्दी से पहले जब साम्राज्यों का विभाजन नहीं हुआ था, तो वाराणसी मुगलों का प्रमुख प्रांत था। ब्रिटिश काल में 1910 में बनारस संपूर्ण राज्य बना, जिसकी राजधानी रामनगर थी। 18वीं शताब्दी से यह किला काशी नरेश का आवास है, जो बनारस के राजा का इतिहास बताता है। किला सुबह 9 से एक बजे और 2 से शाम 5 बजे तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है। रामनगर की रामलीला विश्वप्रसिद्ध है। बनारस में हर पर्व पूरी संजीदगी व जिंदादिली के साथ मनाया जाता है। यहां महाशिवरात्रि से लेकर, श्रावण व पुरुषोत्तम मास पर्व, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पर्व तक और चेतगंज की नक्कटैया व नाटी इमली के भरतमिलाप से लेकर दशहरा, दीवाली, मकर संक्रांति, ईद व होली मनाने का अलग ही अंदाज है। बनारसी भाषा का अल्हड़पन और यहां का अलमस्त जीवन सहज ही आगंतुकों के मन को छू जाता है। बनारस का पान, साड़ी व कालीन भी विश्वप्रसिद्ध है।
यूं हुई बाबा विश्वनाथ की काशी वापसी
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि देवी पार्वती को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का मन बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी और वे यहां रहने लगे, जिससे अन्य देवी देवता भी काशी आने लगे। इससे राजा दिवोदास को नगर पर अपना अधिपत्य खोने से काफी दु:ख हुआ और उन्होंने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जिसके वरदान स्वरूप शिवजी को काशी छोडऩे पर विवश होना पड़ा। लेकिन, महादेव का काशीमोह भंग नहीं हुआ, उन्हें उनकी प्रिय नगरी में बसाने के लिए 64 योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ और ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो शिवलिंग की स्थापना कर शिवलोक चले गए। ब्रह्माजी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट भेजकर उनका स्वागत किया और महादेव काशी वापस आ गए और यहीं बस गए।
सर्वेश पाठक