Friday, January 25, 2013

‘बुद्ध’ की लुंबिनी, लुंबिनी के ‘बुद्ध’

बुद्धम्  शरणम्  गच्छामि...
‘बुद्ध’! इस शब्द में ही ऐसा चुंबकत्व है, जिसे आज तक तमाम ध्यानी, ज्ञानी अपने अपने शब्दों में परिमार्जित करते आ रहे है, लेकिन अभी भी वे मानो बुद्ध से हजार, लाख गुना दूर हों। जी हां, बुद्ध न तो विश्लेषण हैं और ना ही संश्लेषण! वे तो अतिक्रमण हैं, जो मन के भीतर पैठ मन को बाहर खींच लाते हैं अर्थात आपको, आपका प्रतिबिंब बना देते हैं, ताकि आप स्वयं से साक्षात्कार कर सकें। भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘काम, क्रोध, मद (अहंकार), लोभ, अधिकार, ईष्या आदि हमारे अपने ही मन की उपज हैं, जबकि बुद्ध हमारा अंत:स्थ स्वभाव है। इसे सृजित करने, विकसित करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह तो स्वयं निर्मित है। इसे खोलकर ही इसकी अतल गहराई में उतरा जा सकता है, इसे खोजकर ही इससे पार पाया जा सकता है। मन में उतरना ही ध्यान से अनंत में प्रवेश है, जो पहुंचा, वहीं जागा और अनंत में विलीन हो सर्वव्यापी हो गया।’

सच ही है कि भगवान बुद्ध दुनिया का एक रहस्य हैं। कहते हैं, जहां समस्त धर्मावलंबियों का ध्यान, ज्ञान व अध्यात्म पूर्ण होता है, उसके कई चरण आगे बुद्धत्व का प्रारंभ होता है और इसका परिमार्जन अनंत में ले जाकर सर्वव्यापी बना देता है। भगवान तो बहुत हुए, लेकिन बुद्ध ने चेतना के जिस शिखर को छुआ, वैसा किसी और ने नहीं। बुद्ध का पूरा जीवन सत्य की खोज और निर्वाण को पा लेने में ही लग गया। उन्होंने मानव मनोविज्ञान और जीवन से जुड़े सुख-दुख के हर पहलू पर कहा और उसके समाधान बताए। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने रहस्यों को जितनी सरलता से तथा जितना ज्यादा समझाया, उतना किसी और ने नहीं। धरती पर अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ, जो बुद्ध के बराबर कह गया। सैकड़ों ग्रंथ हैं, जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य कि उनमें कहीं दोहराव नहीं है। जिसने बुद्ध को पढ़ा और समझा वह भीक्षु हुए बगैर नहीं बचा, क्योंकि बुद्ध सिर्फ बुद्ध जैसे हैं, उनके जैसा कोई नहीं। तो, चलिए! हम आपको भगवान गौतम बुद्ध तथा उनसे जुड़े उन तमाम स्थलों, घटनाओं, कथानकों, विचारों आदि से जोडऩे का प्रयास करते हैं। इसकी शुरूआत हम लुंबिनी से करते हैं, जहां भगवान बुद्ध ने नवजात सिद्धार्थ के रूप में शाक्य वंश के प्रतापी राजा शुद्धोधन के यहां जन्म लिया था।

लुंबिनी और बुद्ध
दरअसल, लुंबिनी दर्शन के बिना बुद्ध तथा बौद्ध धर्म की सार्थकता पूर्ण होना असंभव है, क्योंकि भगवान गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी, कपिलवस्तु (शाक्य महाजनपद की राजधानी) के निकट 563 ई. पू. में हुआ था, जो आज दक्षिण मध्य नेपाल (पूर्ववर्ती भारत) में है। महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां एक स्तंभ बनवाया, जिस पर भगवान बुद्ध के जन्म से जुड़े तथ्य अंकित हैं। आज यह क्षेत्र रूमिनदेई नाम से जाना जाता है, जो भारतीय सीमा से 10 किमी दूर है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शाक्य वंश में जन्मे बुद्ध गौतम गोत्र के थे, उनके पिता और शाक्यों के राजा शुद्धोधन ने उनका नाम सिद्धार्थ रखा, जो बाद में महात्मा गौतम बुद्ध के नाम से विश्वप्रसिद्ध हुए। गौतम बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं, जो बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बने। कहते हैं, कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की रानी महामाया अपने मायके जाते हुए लुंबिनी नामक मनोरम स्थल पर रुकीं और यहीं उन्होंने बालक सिद्धार्थ को जन्म दिया। इसीलिए, यह स्थल बौद्ध धर्म के अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र तीर्थो में गिना जाता है।

सिद्धार्थ और यथार्थ
प्रचलित कथाओं के अनुसार महात्मा बुद्ध के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे। फिर, राजा शुद्धोदन ने आठ भविष्य वक्ताओं से स्वप्न का अर्थ पूछा, तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र होगा। यदि वह घर में रहा, तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया, तो संन्यासी बनेगा और अध्यात्म के प्रकाश से विश्व को आलोकित कर देगा। राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, सिद्धार्थ सदा किसी ङ्क्षचता में डूबा दिखायी देता था। अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे, तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा, उसने उनके जीवन की दिशा बदल डाली। उनकी दृष्टि चार दृश्यों पर पड़ी (संस्कृत चतुर निमित्त)-  एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति, फिर एक रोगी, फिर एक शवयात्रा को देख वे संसार से और भी विरक्त हो गए। फिर, उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी देखा, जिसके चेहरे पर शांति और अपूर्व तेज था, सिद्धार्थ अत्यधिक प्रभावित हुए। उनके मन में निवृत्ति के प्रति नि:सारता तथा निवृतिमर्ण की ओर संतोष भाव उत्पन्न हो गया। वो समझ गये कि सबका जन्म होता है, बुढ़ापा आता है, बीमारी होती है और एक दिन सबकी मौत हो जाती है। यह सत्य सिद्धार्थ का जीवन दर्शन बन गया। विवाह के दस वर्ष बाद उन्हें पुत्र हुआ। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुंह से सहसा निकल पड़ा- ‘राहु’- अर्थात बंधन! उन्होंने बेटे का नाम राहुल रखा। फिर, सांसारिक बंधनों द्वारा छिन्न-विछिन्न होने से पहले उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और एक  दिन रात्रि प्रहर में 29 वर्षीय युवा सिद्धार्थ निकल पड़े ध्यान, ज्ञान के प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने! उन्होने अपना समृद्ध जीवन, अपनी जाति, पत्नी, बच्चे, सबको छोड़ संन्यास अपनाया, ताकि वे जन्म, बुढ़ापे, दर्द, बीमारी, मौत आदि के उत्तर खोज सकें।

आज भी है धरोहर
भगवान बुद्ध ने हिमालय की पहाडिय़ों में बसे लुंबिनी में जीवन के 29 साल बिताए, फिर वे गृह त्यागकर सत्य एवं ज्ञान की तलाश में निकल पड़े, जिसका वर्णन यहां के तमाम शिलालेखों पर अंकित है। लुंबिनी के स्मारकों में प्रमुख है लगभग 24 फुट ऊंचा अशोक स्तंभ, जिस पर अशोक के अभिलेखों के अलावा भी कई अभिलेख हैं। इसके निकट ही दो छोटे स्तूप हैं। यहां कई बौद्ध मंदिर हैं, खासतौर पर माता मायादेवी का मंदिर काफी प्रसिद्ध है, जिसमें भव्य प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में बुद्ध का जन्म दर्शाया गया है। यहां वह तालाब भी देखा जा सकता है, जहां जन्म के बाद सिद्धार्थ को पहली बार स्नान करवाया गया था। मान्यता है कि इस तालाब में सिद्धार्थ के जन्म के बाद उनकी माता मायादेवी ने भी स्नान किया था। महल के अवशेष भी यहां नजर आते हैं। इसके अलावा, बौद्ध धर्म में बेहद पवित्र माने जाने वाले चार बोधि वृक्षों में से एक यहां स्थित है। आसपास अनेक स्मारक हैं, जो खंडहरों में तब्दील हो चुके हैं। तिलर नदी तक फैले ये खंडहर स्तूप एवं विहारों के हैं। नेपाल की राजधानी काठमांडू से दूर होने के कारण यहां प्राय: बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले ही पहुंचते हैं, हालांकि यह स्थान भारतीय सीमा के काफी नजदीक है। यहां जाने के लिए आपको पहले काठमांडू जाना होगा, फिर वहां से बस या टैक्सी के जरिए लुंबिनी का सफर तय कर सकते हैं। यूनेस्को ने 1997 में लुंबिनी को वल्र्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था।
सर्वेश पाठक