Monday, August 19, 2013

बुद्धिज्म की साक्षी श्रावस्ती

भगवान बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ और पारिवारिक नाम गौतम था। ‘बुद्ध’ तो उनकी जागरूक अवस्था थी, जिसका बोध होने के बाद उन्होंने सारनाथ में इसकी घोषणा की। वे जानते थे कि ‘मन’ ही हमारा सबसे बड़ा धोखा है, इसलिए वे ‘मन’ यानी स्वयं का दर्पण बन इसके सामने उपलब्ध हो जाने की बात समझाते थे। उन्होंने संघर्ष, तप, संकल्प आदि पर जोर नहीं दिया, बल्कि आत्मिक बोध पर बल दिया। वे कहते थे कि ‘मन’ की अतल गहराइयों में ही बुद्धत्व छिपा है, जिसने वहां कदम रखे, उसने एक गहन मौन तथा अगम शांति की अनुभूति की और स्वयं को बुद्ध के समीप पाया। उन्होंने क्षणभंगुरता को रेखांकित करते हुए कहा कि जिसने पल-पल की परिवर्तनशीलता को समझा, उसी ने धर्म में प्रवेश कर बुद्धत्व की प्राप्ति की। बुद्ध से जुड़ी इस कड़ी में है श्रावस्ती की वीथिकाओं को खंगालने का प्रयास:

भ्रमणशील बुद्ध ने समूचा जीवन विश्व को सत्य के बोध से आलोकित करने में लगाया। उन्होंने मृत्यु और भय को समझाते हुए कहा कि जीवन की पूर्णता ही मृत्यु है, इससे हमें पूरे जीवन का बोध होता है कि वह कैसा था! उन्होंने मृत्यु से भयभीत होने की जगह जीवन का बोध कराया और कहा कि स्वयं के अस्तित्व में प्रवेश ही मौन है, जो कामवासना को ब्रह्मïचर्य में, क्रोध को करुणा में, भय को प्रार्थना तथा दुख को तपश्चर्या में बदल देता है। शांति और निर्वाण के लिए शरीर और मन के प्रति जागरूक रहना ही एकमात्र मार्ग है, जो समस्त दुखों से छुटकारा दिला सकता है।
श्रावस्ती में बुद्ध के चमत्कार
करीब 35 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ, बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे, फिर उन्होंने धर्म-चक्र प्रर्वतन किया और चल पड़े विश्व को बुद्धत्व से आलोकित करने! भ्रमणकाल में तमाम स्थलों पर उन्होंने धर्मोपदेश दिया, किंतु सर्वाधिक प्रवास संभवत: श्रावस्ती रहा, जहां उन्होंने लगभग 25 वर्ष बिताए और कई चमत्कार किए। तभी से कौशल साम्राज्य की राजधानी रही श्रावस्ती प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल के रूप में विख्यात है। बौद्ध कथाओं के अनुसार श्रावस्ती में अन्य मतों के आचार्यों की चुनौती तथा अनुयायियों के अनुग्रह पर भगवान बुद्ध ने चार चमत्कार दिखाए, जो ज्वलन, तपन, वर्षण व विद्योतन हैं। इनके अंतर्गत वहां उपस्थित जनसमूह ने आकाश में बुद्ध के शरीर से ज्वालाएं, गर्मी, जल व प्रकाश निकलते देखा। बुद्ध के चमत्कारों को देख कौशल राजा प्रसेनजीत भी उनके अनुयायी बन गए।
पुरातनता की साक्षी श्रावस्ती
आजकल महेथ-सहेथ गांव के रूप में यूपी के गोंडा और बहराइच जिले की सीमा से सटे राप्ती नदी के तट पर स्थित श्रावस्ती के नाम को लेकर कई किंवदंतियां हैं। पुराणों में यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी, फिर भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया। महाभारत के अनुसार पृथु की छठीं पीढ़ी के राजा श्रावस्त ने यह नगर स्थापित कराया, इसलिए इसे ‘श्रावस्ती’ कहा गया। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन से जुड़ी समस्त वस्तुएं सुलभता से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ा। एक अन्य उल्लेख में यहां सवत्थ (श्रावस्त) नामक प्रतिष्ठित ऋषि रहते थे, जिनके नाम पर नगर का नाम ‘श्रावस्ती’ हो गया। एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार वहां 57 हजार परिवार रहते थे और कौशल-नरेशों को सबसे ज़्यादा राजस्व इसी नगर से मिलता था। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा नगर था। इसके अलावा इर्द-गिर्द मजबूत सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे थे। प्राचीन कला-साहित्य में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन है, जिससे पता चलता है कि वे काफी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियां एकसाथ बाहर निकल सकती थीं। चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना होती थी। यहां के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान बुद्ध के लिए ‘जेतवन’ बिहार बनवाया था, जहां आजकल बौद्ध धर्मशाला, मठ और मंदिर है।
अतीत को सहेजे महेथ-सहेथ
करीब 400 एकड़ में फैला ‘महेथ’ मूल श्रावस्ती माना जाता है। यहां की खुदाई में पुरातन नगर के दो विशाल दरवाजे, परकोटे और अन्य संरचनाएं मिलीं, जो इसकी प्राचीन भव्यता दर्शाती हैं। शोभानाथ का मंदिर भी यहीं है, जिसे जैन तीर्थंकर संभवनाथ का जन्मस्थल मानते हैं। यह भी मान्यता है कि यहां की कच्ची और पक्की कुटी प्रारंभ में बौद्ध मंदिर थे, जिन्हें बाद में ब्राह्मी मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया था। महेथ के दक्षिण-पश्चिम में निकट ही 32 एकड़ में सहेथ फैला है। कभी, यही पर पर ‘जेतवन’ था। यहां अनेक मठ, स्तूप और मंदिर हैं। इनमें एक प्रारंभिक स्तूप भी मिला, जिसे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का मानते हैं और इसमें महात्मा बुद्ध के स्मृति चिह्न हैं। यहां बुद्ध की एक विशाल मूर्ति भी मिली, जो फिलहाल कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में है।
बुद्ध को श्रावस्ती से जोड़ती बातें
यहां पक्की कुटी को अंगुलीमाल का स्तूप माना जाता है, जो खूंखार डाकू था और लोगों की उंगली काटने के बाद माला बनाकर पहनता था। एक बार वह अपनी मां को मारने जा रहा था, तभी बुद्ध मिल गए। उनके उपदेशों ने डाकू पर ऐसा प्रभाव डाला कि वह अपराध त्यागकर महात्मा की शरण में आ बौद्ध मार्ग पर चलने लगा। श्रावस्ती में ‘जेतवन’ के प्रवेश द्वार के निकट ‘आनंदबोधि’ वृक्ष है। कहते हैं कि बुद्ध ने इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया था। धारणा है कि यहां ध्यान लगाने वाले को पुण्य मिलता है। बुद्ध और श्रावस्ती से जुड़ी तमाम कथाएं भी हैं, जिनमें प्रसिद्ध है भिक्षुणी पटाचारा की कथा! श्रावस्ती के धनिक की बेटी पटाचारा ने एक सेवक से प्रेम-विवाह कर लिया। उसे दो पुत्र हुए, दूसरे पुत्र के जन्म से पहले मायका जाते वक्त पटाचारा के पति को राह में सर्प ने डंस लिया, फिर दोनों बच्चे भी असमय काल में समा गए। मायका पहुंचने से पहले ही उसे माता-पिता की मृत्यु की सूचना मिली, फिर वह विक्षिप्त हो ‘जेतवन’ पहुंची और बुद्ध की शरणागत हो गई। एक दिन स्नान के वक्त उसने देखा कि शरीर पर गिरने वाला जल क्षणांश में धरती में समा जा रहा है, फिर उसे जीवन-मरण का बोध हो गया। उसने सुना जैसे बुद्ध कह रहे हों, ‘पटाचारे, समस्त प्राणी मरण धर्मा है’। कालांतर में वह उन साधिकाओं में गिनी गई, जिन्हें जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त हुआ।
तफरीह का वक्त और साधन
श्रावस्ती का निकटतम एयरपोर्ट लखनऊ है, जो यहां से 176 किमी. दूर है। लखनऊ अन्य प्रमुख शहरों से वायुमार्ग से जुड़ा है। रेल द्वारा जाने पर बलरामपुर यहां का नजदीकी स्टेशन है, जो 17 किमी. की दूरी पर है। इसके अलावा आसपास के शहरों से सड़क मार्ग से आसानी से श्रावस्ती पहुंचा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की अनेक बसें श्रावस्ती को दूसरे शहरों से जोड़ती हैं। वैसे तो यहां कभी भी जाया जा सकता है, लेकिन अक्टूबर से मार्च का वक्त बेहतर है।
सर्वेश पाठक

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